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कुंभकार के दीपक से झलकती है संस्कृति की आभा, दमकती है दीपावली

मजदूरी कम फिर भी निभा रहे हैं बुजर्गों की परम्परा, आधुनिकता ने छीना कारीगरों का निवाला

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मजदूरी कम फिर भी निभा रहे हैं बुजर्गों की परम्परा, आधुनिकता ने छीना कारीगरों का निवाला

महावीर सारस्वत

ठुकरियासर. नए जमाने की हवा भले ही पुराने रीति-रिवाजों को पीछे छोड़ने पर उतारू हो, लेकिन आज भी मिट्टी के दीपक की लौ के आगे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की चकाचौंध फीकी ही होती है। दीपों के पर्व पर इलेक्ट्रिक मोमबत्ती, दीपक व झालरों की भरमार और खरीदारी को होड़ लगी रहे, लेकिन लक्ष्मी पूजन में मिट्टी के दीपक का ही महत्व माना जाता हैं। दीपक की रोशनी के बिना दीपावली की पूजा संपन्न नहीं होती है। साथ ही ग्रामीण क्षेत्र में दीपावली, शादी, धार्मिक कार्य या अन्य त्योहार व पूजन कार्य कुम्हारों की चाक और बर्तनों के बिना पूरे नहीं होते है।

180 से 200 रुपए सैकड़ा बिकते हैं दीपक

इन दिनों कुम्हार बिक्री के लिए अलग-अलग वैरायटी के दीपक तैयार करने में लगे हैं। कुम्हारों के अनुसार होलसेल में करीब दो सौ रुपए सैकड़ा में दीये बेचे जाते हैं और बाजार में ग्राहकों को दो से अढ़ाई रुपए में एक दीपक मिलता है।

पांच तत्वों से मिलकर बनता दीपक

ठुकरियासर के शास्त्री प्रेम सारस्वा बताते हैं कि मिट्टी का दीपक पांच तत्वों से मिलकर बनता है। इसकी तुलना मानव शरीर से की जाती है। पानी, आग, मिट्टी, हवा तथा आकाश तत्व ही मनुष्य व मिट्टी के दीपक में समाहित है।

दीयों में संस्कृति की झलक

प्राचीन संस्कृति में मिट्टी के दीपकों का ही दीपावली में महत्व होता है। अध्यापक मूलचन्द स्वामी ने कहा कि भगवान राम का स्वागत अयोध्यावासियों ने दीपक जलाकर ही किया था। साथ ही पर्यावरण संरक्षण में भी मिट्टी के दीपक सहायक है। सरसों और घी डाल कर मिट्टी के दीपक जलाने से वातावरण शुद्ध होता है और मच्छरों का नाश होता है। सामाजिक कार्यकर्ता नानूराम कुचेरिया का कहना है कि दीपावली की जगमगाहाट में मिट्टी से बने दीपक, मटके एवं अन्य पूजन के बर्तनों में कुम्भकार की मेहनत समाहित है और इसी से इनके के घर में दीपावली रोशन होती है।

आधुनिकता ने छीना कारीगरों का निवाला

चार पीढ़ी से इस कार्य में जुटे श्रीडूंगरगढ़ के पूनमचंद प्रजापत बताते हैं कि दीपावली के मौके पर भारतीय परंपराओं के अनुसार घरों पर दीपक जलाते आ रहे हैं, लेकिन बीते कुछ वर्षों से बाजारों में सस्ती चाइनीज लाइटें आने और लागत बढ़ने के कारण कुम्हारों की आमदनी पर खासा असर पड़ा है। नरसीराम प्रजापत ने बताया कि उनके परिवार में करीब 80 सालों से मिट्टी के बर्तन बनाए जा रहे हैं। एक समय था जब दीपावली से पहले आराम करने की भी फुर्सत नहीं मिलती थी, लेकिन अब परिवार चलाना भी मुश्किल हो जाता है। बर्तनों के लिए मिट्टी खरीदना, बर्तन बनाने के योग्य मिट्टी तैयार करना, पकाना आदि पर काफी मेहनत करनी पड़ती है। बर्तन बनाने के लिए मिट्टी, लकड़ी एवं पकाने के अन्य खर्चों में बढ़ोतरी भी दिनोंदिन हो रही है। इसके उपरांत भी मजदूरी चार सौ रुपए से ज्यादा नहीं हो पाती है। हालांकि केंद्र सरकार ने बर्तन बनाने के लिए चयनित परिवारों को चाक जरूर मुहैया करवाई है, लेकिन कुंभकार परिवार को सरकार की ओर से इस कार्य को बढ़ावा देने के लिए कोई आर्थिक सहयोग नहीं दिया जा रहा है।