
Devendra Jhajharia (Patrika Photo)
Devendra Jhajharia: अंतरराष्ट्रीय दिव्यांग दिवस (3 दिसंबर) सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि दुनिया भर में उन करोड़ों लोगों की क्षमताओं, संघर्षों और अधिकारों की पहचान कराता है, जिनकी ताकत को समाज अक्सर कम आंक देता है। भारत में 2011 की जनगणना के मुताबिक, 2.68 करोड़ से अधिक दिव्यांगजन हैं, लेकिन विशेष बात यह है कि दिव्यांग शब्द हमेशा से हमारी भाषा का हिस्सा नहीं था।
वर्षों तक विकलांग शब्द लोगों की जुबान पर था, जिसमें कमी या अक्षमता का भाव छिपा रहता था। साल 2015 में पीएम नरेंद्र मोदी द्वारा दिव्यांग शब्द अपनाने की अपील ने बहस छेड़ी क्या शब्द बदलने से सचमुच सोच भी बदली? क्या यह भाषा सुधार था या समाज को संवेदनशील बनाने की कोशिश? और सबसे जरूरी क्या इससे दिव्यांगजन के जीवन में कोई वास्तविक बदलाव आया?
राजस्थान के चूरू जिले से निकलकर अंतरराष्ट्रीय खेल मंच पर भारत का गौरव बढ़ाने वाले देवेंद्र झाझड़िया बताते हैं कि दिव्यांग शब्द ने खिलाड़ियों के मनोबल पर बड़ा असर डाला। झाझड़िया कहते हैं कि जब पीएम मोदी ने “मन की बात” में पहली बार उन्हें दिव्यांग कहा, तो देशभर के पैरा खिलाड़ियों ने इसे सम्मान के रूप में देखा।
वे बताते हैं कि वर्षों पहले, जब वे बचपन में हादसे में अपना एक हाथ खो बैठे थे, तब आसपास के लोग उन्हें “बेचारा” या “असमर्थ” कहकर देखते थे। यह हमदर्दी उन्हें चुभती थी। इसी दृष्टि ने उन्हें खेल में पहचान बनाने की प्रेरणा दी।
देवेंद्र याद करते हैं कि स्कूल के दिनों में जैवलिन थ्रो उनके पास विकल्प के तौर पर नहीं आया, बल्कि खुद को साबित करने का रास्ता बना। लकड़ी से बना अस्थाई भाला लेकर वे सामान्य खिलाड़ियों के बीच जिला स्तर पर पहली बार विजेता बने और तब उन्हें एहसास हुआ कि समाज की नजर बदलने का एकमात्र तरीका अपनी काबिलियत दिखाना है।
आज वे कहते हैं कि शब्द बदलने से माहौल बदलने की शुरुआत हुई, लेकिन वास्तविक परिवर्तन तब दिखाई दिया, जब सरकार ने खिलाड़ियों के लिए संरचनात्मक कदम उठाए। TOPS (Target Olympic Podium Scheme) में पैरा-एथलीट्स को समान अवसर, व्यक्तिगत कोच चुनने की आजादी और बेहतर वित्तीय सहायता मिली।
देवेंद्र झाझड़िया जैवलीन थ्रो के स्टार खिलाड़ी हैं। जब वह केवल 10 वर्ष के थे, तभी उन्होंने इस खेल में कुछ कर गुजरने का ठाना। उन्होंने यह फैसला ऐसे हालात में लिया, जब उनके पास केवल एक हाथ बचा, दूसरा हादसे में उन्होंने खो दिया। कहते हैं जब कुछ कर गुजरने का जुनून हो तो रास्ते खुद-ब-खुद बनते चले जाते हैं। देवेंद्र झाझड़िया का सफर भी ऐसा ही रहा। पेड़ की लकड़ियों से भाला बनाकर एकलव्य की भांति अभ्यास शुरू किया। देवेंद्र रोजाना भाला फेंकने का 5-6 घंटे प्रयास करने लगे।
धीरे-धीरे वह भाला फेंकने में पारंगत हो गए और कक्षा 10वीं में ही जिलास्तरीय एथलेटिक्स टूर्नामेंट में पहली बार स्वर्ण पदक हासिल किया और यह सिलसिला साल दर साल आगे बढ़ता रहा। जिले के बाद राज्यस्तर पर कामयाबी पाई, कुछ ही वर्षों में राष्ट्रीयस्तर पर परचम लहराया। उसके बाद एथेंस पैरा ओलंपिक में स्वर्ण पदक, इंचियोन दक्षिण कोरिया पैरा एशियन गेम्स में रजत और चीन के ग्वाऊ च्युयानलिंग में कांस्य पदक जीतकर विश्वभर में भारत का नाम रोशन किया।
देवेंद्र झाझड़िया की इस अभूतपूर्व उपलब्धि के लिए भारत सरकार ने उन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया है। देवेंद्र को 9 अगस्त 2005 में राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा अर्जुन अवार्ड से सम्मानित किया गया। उसके बाद 2012 में पद्मश्री अवार्ड और 2017 में उन्हें खेल रत्न पुरस्कार से नवाजा गया।
राजस्थान के चूरू जिले से ताल्लुक रखने वाले देवेंद्र झाझड़िया की इस उपलब्धि पर समाज, परिवार को गर्व है। पिता राम सिंह झाझड़िया कहते हैं कि उन्होंने बेटे का संघर्ष देखा है। इस कामायबी तक पहुंचना किसी के लिए भी आसान नहीं होता।
शुरुआती दिनों में पर्याप्त सुविधा न होने के बावजूद देवेंद्र के जुनून में कोई कमी नहीं आई, जिसका नजीता रहा कि वह परिवार, समाज, प्रदेश के साथ देश का नाम रोशन किया है। देवेंद्र का जन्म 10 जून, 1981 में गांव झाझड़िया की ढाणी, तहसील राजगढ़, जिला चूरू राजस्थान में हुआ।
Published on:
03 Dec 2025 03:06 pm
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