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Guest Editor- सच्ची कहानियों को कैमरे की नजरों से कहना ही मेरा धर्म-मयूरिका

कहानी कहने की कला में सत्य, संवेदना और बारीकी — इन तीनों का संतुलन साधना हर किसी के बस की बात नहीं होती। लेकिन डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर मयूरिका बिश्वास ने यह कर दिखाया है। पिछले दो दशकों में उन्होंने न सिर्फ भारतीय पत्रकारिता में अपनी पहचान बनाई, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के डॉक्यूमेंट्री कंटेंट को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। कान्स में मिला ‘गोल्डन डॉल्फिन अवॉर्ड’, उनकी मेहनत, दृष्टि और ईमानदारी का प्रमाण है।

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जयपुर

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Rakhi Hajela

Oct 11, 2025

Mayurica Biswaas

Mayurica Biswaas


कहानी कहने की कला में सत्य, संवेदना और बारीकी — इन तीनों का संतुलन साधना हर किसी के बस की बात नहीं होती। लेकिन डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर मयूरिका बिश्वास ने यह कर दिखाया है। पिछले दो दशकों में उन्होंने न सिर्फ भारतीय पत्रकारिता में अपनी पहचान बनाई, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के डॉक्यूमेंट्री कंटेंट को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। कान्स में मिला ‘गोल्डन डॉल्फिन अवॉर्ड’, उनकी मेहनत, दृष्टि और ईमानदारी का प्रमाण है। पत्रिका संवाददाता राखी हजेला के साथ हुई टेलीफोनिक वार्ता में उन्होंने अपनी जर्नी कुछ इस तरह से साझा की।



मैं मयूरिका मैंने अपने कॅरियर की शुरुआत पत्रकारिता से की थी। शुरुआती दौर में मैंने कई नेशनल न्यूज चैनलों में काम किया। उस समय टीवी फीचर जर्नलिज्म का दौर था, जहां किसी विषय को गहराई से समझाया जाता था, सिर्फ न्यूज रिपोर्टिंग नहीं होती थी। मेरी भी रुचि कहानियां कहने में थी, इंसानों की कहानियां, संघर्षों की कहानियां, सच्चाई की कहानियां। इसी दौरान एक नेशनल चैनल में काम करते हुए मुझे बड़ा शो लाइन ऑफ ड्यूटी मिला, जो मेरे कॅरियर के लिए टर्निंग पांइट साबित हुआ। इस शो ने मुझे देश के फ्रंटलाइन इलाकों सियाचीन ग्लेशियर, कश्मीर, मिजोरम, सूरतगढ़ के ट्रेकिंग जोन और नौसेना के एयरक्राफ्ट कैरियर विराट तक पंहुचाया। मैंने इन दुर्गम मोर्चों पर जाकर शूट किया। कंधे पर कैमरा लेकर माइनस डिग्री में शूटिंग करना ही मेरी असली ट्रेनिंग थी। यह अनुभव मेरे लिए बहुत खास था।
इसके बाद मैं एक प्रोडक्शन हाउस से जुड़ी। जिसका मुख्यालय दिल्ली और बॉम्बे (मुंबई) दोनों जगह था। मैं उस समय दिल्ली शिफ्ट हो गई थी। वहीं से मैंने अंतरराष्ट्रीय डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण की दुनिया में कदम रखा। यहां मैंने कई बड़े प्रोजेक्ट्स किए जैसे मुंबई आतंकी हमलों पर आधारित एक विशेष डॉक्यूमेंट्री और ट्रू क्राइम शृंखलाओं की एक सीरीज, जिन्होंने मुझे दक्षिण-पूर्व एशिया तक पहुंचाया।
मैंने एक डॉक्यूमेंट्री ‘द जैज मर्डरर’ निर्देशित की, जो हांगकांग के पहले सीरियल किलर लैम कौरवान की कहानी पर आधारित थी। हमने इस डॉक्यूमेंट्री में हांगकांग के इस सीरियल किलर की कहानी को फिर से ट्रेस किया।
इसके अलावा मैंने कई और ट्रू क्राइम डॉक्यूमेंट्रीज बनाई, जैसे एक बड़ी बैंकिंग धोखाधड़ी पर बनी डॉक्यूमेंट्री ‘द बैंकर हू न्यू टू मच’ और एक थाईलैंड के सीरियल किलर पर आधारित फिल्म ‘द माफिया मर्डर्स’। इन सभी डॉक्यूमेंट्रीज का निर्माण मिडिटेक के बैनर तले हुआ और मैंने इन्हें लिखा व निर्देशित किया।
कई प्रोजेक्ट्स में हमने सीआइए जैसी एजेंसियों के साथ रिसर्च साझा की। ये अनुभव मेरी सोच को वैश्विक बनाते गए। यही से मुझे समझ आया कि एक पत्रकार और एक डॉक्यूमेंट्री मेकर के बीच का सबसे बड़ा अंतर क्या है, समय और गहराई। टीवी पत्रकारिता में सब कुछ मिनटों में होता है, खबर, स्क्रिप्टिंग, एडिटिंग। लेकिन डॉक्यूमेंट्री में आपके पास रिसर्च करने, महसूस करने और कहानी को गढऩे का समय होता है।

सच्चाई का सिनेमा होता है प्रभावशाली


जब मैं मां बनने वाली थी, तब मुझे अहसास हुआ कि मीडिया का तनावपूर्ण शेड्यूल संभालना मुश्किल होगा। इसलिए मैंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी ‘स्टोरी टेलर फिल्म्स’ की शुरुआत की, जिसे 10 साल हो चुके हैं और यहीं से फैक्चुअल और इन्वेस्टिगेटिव डॉक्यूमेंट्री को नए स्तर पर ले जाने का सफर शुरू किया।
इसी के तहत मैंने बदायूं केस पर Voices Under the Mango Tree बनाई। साथ ही, चर्चित आरुषि तलवार हत्याकांड की की पड़ताल करती डॉक्यूमेंट्री Beyond Reasonable Doubt का निर्माण किया। इन प्रोजेक्ट्स में हमने स्वतंत्र फॉरेंसिक एक्सपट्र्स, कानूनविदों और पुलिस अधिकारियों के साथ मिलकर केस के हर पहलू की गहराई से जांच की। हम कोर्ट में घंटों बैठते थे, नोट्स बनाते थे, फुटेज रिकॉर्ड करते थे। एक-एक संवाद को ऑथेंटिक तरीके से प्रस्तुत करना जरूरी था, क्योंकि ये डॉक्यूमेंट्रीज भविष्य के लिए प्राइमरी सोर्स ऑफ रिसर्च बनती हैं। इन डॉक्यूमेंट्रीज ने दर्शकों को झकझोर कर रख दिया और दिखाया कि सच्चाई का सिनेमा कितना शक्तिशाली हो सकता है। यह मेरे कॅरियर के सबसे भावनात्मक और प्रभावशाली प्रोजेक्ट्स में से एक रहा।


जरूरी है रिसर्च, भावनाएं और एक्सेस


मेरी डॉक्यूमेंट्री में गहराई और संवेदनशीलता दोनों नजर आती है। इसके लिए जरूरी है रिसर्च, भावनाएं और एक्सेस। रिसर्च आपके काम की नींव होता है। एक्सेस कहानी को असलियत से जोड़ता है और भावनाएं कहानी को इंसानी बनाती हैं। किसी व्यक्ति या समुदाय की कहानी कहने के लिए उनका विश्वास जीतना सबसे कठिन लेकिन सबसे जरूरी हिस्सा होता है। जब तक आपने उनके साथ विश्वास का रिश्ता नहीं बनाया, जब तक वे अपना जीवन और अपनी कहानियां आपके साथ बांटने के लिए तैयार नहीं होते, तब तक आपके पास कहानी नहीं होती।
और जब वह एक्सेस मिल जाती है, तो जिम्मेदारी भी आती है कि आप उस विश्वास का दुरुपयोग न करें। स्टोरीटेलिंग में एक संतुलन बनाए रखना जरूरी होता है, क्या बताना है, और कैसे बताना है। रिसर्च तो नींव है, लेकिन असली इमारत 'एक्सेस' से बनती है। जब रिश्ता बनता है, तो भावनाएं अपने आप कहानी में आ जाती हैं।

देश में डॉक्यूमेंट्री निर्माण में सेलिब्रिटी कल्चर का प्रभाव ज्यादा


मैंने कई इंटरनेशनल प्रोजेक्ट्स किए हैं, जिनकी कहानियां भारत से हैं लेकिन फंडिंग या प्रसारण विदेश से हुआ है। वहां काम करने की प्रक्रिया बहुत संरचित होती है, एक स्पष्ट सोच, योजना और अनुशासन होता है। भारत में भी बहुत रोमांचक काम हो रहा है, लेकिन एक चीज जो मुझे खलती है, वो है सेलिब्रिटी की अत्यधिक भूमिका। भारत में आज भी डॉक्यूमेंट्री निर्माण में सेलिब्रिटी कल्चर का प्रभाव ज्यादा है। अगर कहानी में कोई बड़ा चेहरा नहीं है, तो कई बार उसे महत्त्व नहीं दिया जाता। उदाहरण के तौर पर, अगर हम Resurrection Quest को भारत में किसी ओटीटी प्लेटफॉर्म पर ले जाते, तो शायद वे कहते कि अमिताभ बच्चन से वॉयसओवर करवाइए। जबकि इस सीरीज का उद्देश्य था कि दर्शक खुद सोचें, उन्हें कोई नैरेटर ये न बताए कि क्या सोचना है।
मेरा मानना है कि कहानी की आत्मा खुद बोलनी चाहिए , किसी सेलिब्रिटी की आवाज या चेहरे के सहारे नहीं। अगर सेलिब्रिटी कहानी के हिस्से के रूप में जुड़ें तो ठीक है, लेकिन सिर्फ टीआरपी के लिए जोडऩा कहानी की गरिमा घटाता है। कई बार कहानियों में जबरदस्ती मशहूर चेहरों को घुसा दिया जाता है, सिर्फ टीआरपी या प्रचार के लिए, जबकि वो कहानी से जुड़ा हुआ नहीं होता।

सवाल पूछने पर मजबूर करती डॉक्यूमेंट्री
’ Resurrection Quest मेरे लिए अब तक का सबसे महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है। यह दुनिया के उन वैज्ञानिकों की कहानियां बताती है जो लुप्त या विलुप्त प्रजातियों को वापस लाने की कोशिश कर रहे हैं, जैसे ‘नॉर्दन व्हाइट रायनो’ Northern White Rhino जो अब केवल दो ही बचे हैं। इस सीरीज में कई और कहानियां हैं, जैसे चीन में लोग अपने पालतू कुत्तों को क्लोन कर रहे हैं या अमरीका में वैज्ञानिक ‘पैंसेजर पिजन’ Passenger Pigeon नामक विलुप्त पक्षी को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं। ये सभी कहानियां हमें नैतिक सवाल पूछने पर मजबूर करती हैं कि क्या हमें हर विलुप्त प्रजाति को वापस लाना चाहिए? कौन तय करेगा कि किसे वापस लाया जाए, सरकार या निजी कंपनियां या पूरी मानवता की भागीदारी होगी? इन सवालों के जवाब शायद किसी के पास नहीं हैं, लेकिन इन्हें उठाना जरूरी है। मैंने शुरुआत ‘मैमथ टस्क हंटर्स’ से की थी, जो रूस और चीन में बर्फ के नीचे से मैमथ के दांत निकालते हैं और उन्हें हाथी दांत के विकल्प के रूप में बेचते हैं। लेकिन वहां से कहानी आगे बढ़ी, अब वैज्ञानिक उन्हीं मैमथ कोशिकाओं से तीन विलुप्त प्रजातियों को फिर से बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इस तरह यह यात्रा टस्क हंटर्स से शुरू होकर जीन इंजीनियरिंग, क्लोनिंग, स्टेम सेल रिसर्च और आइवीएफ टेक्नोलॉजी तक पहुंच गई। जहां विज्ञान का इस्तेमाल न सिर्फ जानवरों, बल्कि पूरे इकोसिस्टम को फिर से जीवित करने के लिए किया जा रहा है।हम रूस के साइबेरियन टुंड्रा से लेकर चीन की क्लोनिंग लैब्स तक गए, यह यात्रा वाकई में अद्भुत और अविश्वसनीय रही।


मानव व्यवहार को गढऩे में एआइ का प्रयोग खतरनाक
मैं एआइ हो या कोई अन्य तकनीक। उसे अपनाने के पक्ष में हूं लेकिन सीमाओं के साथ। एआइ डॉक्यूमेंट्री के टेक्निकल हिस्सों में मदद कर सकता है, जैसे फुटेज लॉगिंग, ट्रांसक्रिप्शन वगैरह। लेकिन कहानी के भाव, ऐतिहासिक दृश्य या मानव व्यवहार को गढऩे में इसका प्रयोग खतरनाक हो सकता है, क्योंकि डॉक्यूमेंट्री प्राथमिक स्रोत होती है, उसमें कल्पना नहीं, सच्चाई दिखनी चाहिए। मेरी डॉक्यूमेंट्री ’ Resurrection Quest में शुरुआत में एआइ से आइस एज के दृश्य बनाने की योजना थी, लेकिन बाद में नैतिक कारणों से इसे छोड़ दिया गया। मैं नहीं चाहती थी कि लोग हमारे फुटेज को रीयल मान लें जबकि वह एआइ जनरेटेड हो। सच्ची डॉक्यूमेंट्री का आधार विश्वास होता है। वैसे भी डिजिटल युग में जब कंटेंट तेजी से छोटा और सतही हो रहा है ऐसे में कहानी की आत्मा को बचाए रखना जरूरी है। आज के दौर में लोग फास्ट, स्नैक-टाइप कंटेंट चाहते हैं, रील्स, यूट्यूब व्लॉग्स, पॉडकास्ट। लेकिन डॉक्यूमेंट्री का अस्तित्व इसी में है कि वह धीमी आग पर पकी कहानी कहे। अगर हम भी सबसे कम समय में सब कुछ समेटने लगे, तो क्राफ्ट और संवेदना खो जाएगी।


टीम वर्क से किया काम
इस डॉक्यूमेंट्री सीरीज के निर्माण की सबसे बड़ी तकनीकी चुनौती एक छोटी और घनिष्ठ टीम के साथ काम करना था, लेकिन मेरी टीम के हर सदस्य ने पूरे मन से जिम्मेदारी ली और परियोजना पर पूर्ण विश्वास रखा। टीम के मुख्य सदस्य — सह-निर्देशक राधिका चंद्रशेखर, डीओपी कार्तिक थपलियाल और किरण कुनीगल तथा संपादक तुषार गोगोले, सभी की निष्ठा और समर्पण इस परियोजना की सफलता में बेहद अहम रहे। एक और बड़ी चुनौती थी उन प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों तक पहुंचना, जो संरक्षण के अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्यों में जुटे थे। इसके लिए लगातार प्रयास, धैर्य और समझदारी भरी बातचीत की आवश्यकता पड़ी। नॉर्दर्न व्हाइट राइनो की कहानी को फिल्माना भी कठिन रहा, बार-बार बदलते कार्यक्रम और आकस्मिक परिस्थितियां बड़ी अड़चन बनीं, लेकिन टीम की मेहनत और प्रतिबद्धता ने इसे सफलतापूर्वक पूरा किया।
निर्माण प्रक्रिया में सबसे जरूरी था वैज्ञानिक सटीकता और मानवीय भावनाओं के बीच संतुलन बनाना। जहां विज्ञान को पूरी तरह तथ्यात्मक और असंवेदनशील नहीं दिखाने की जिम्मेदारी थी, वहीं दर्शकों को जोड़े रखने के लिए मानवीय कहानियों को प्राथमिकता दी गई। सीरीज ने यह भी स्पष्ट किया कि डी-एक्सटिंक्शन का अर्थ डायनासोर को जीवित करना नहीं है, बल्कि एशियाई हाथियों के जीन को इस तरह संपादित करना है कि वे आर्कटिक परिस्थितियों में जीवित रह सकें।

अवॉर्ड से मिली नई पहचान
कान्स में मिले ग्लोबल डॉल्फिन अवॉर्ड ने इस डॉक्यूमेंट्री को अंतरराष्ट्रीय पहचान दी और इसकी पहुंच को कई गुना बढ़ा दिया। विज्ञान-आधारित डॉक्यूमेंट्रीज के लिए भारत में अपार संभावनाएं हैं, बशर्ते उन्हें रोचक और भावनात्मक मानवीय कहानियों के रूप में प्रस्तुत किया जाए ताकि दर्शक उनसे जुड़ाव महसूस करें।

महिलाओं में होती है मानवीय दृष्टि
मेरा मानना है कि महिलाओं की संवेदनशीलता डॉक्यूमेंट्री स्टोरीटेलिंग को एक नई दिशा देती है। महिलाएं जब कहानी कहती हैं तो उसमें एक मानवीय दृष्टि होती है, वह सिर्फ फैक्ट नहीं बतातीं, बल्कि फील कराती हैं। यह वही चीज है जो डॉक्यूमेंट्री को विशेष बनाती है। मेरे कई बॉसेज और कमिशनिंग एडिटर्स, जो शानदार महिलाएं रही हैं, जिन्होंने बिना किसी अहंकार के काम किया और अपने विचारों से प्रोजेक्ट्स को नई ऊंचाई दी।
महिलाएं कहानी कहने में अपनी भावनाएं लाती हैं और यही सहानुभूति हर सच्ची कहानी की आत्मा होती है। मुझे लगता है कि आने वाले दशक में महिलाएं फैक्चुअल और इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म में नई संवेदनशीलता और दृष्टि लेकर आएंगी।


सबसे बड़ा सहारा परिवार
मेरा सबसे बड़ा सहारा मेरा परिवार है। शूटिंग के लंबे दिनों के बाद मैं घर लौटकर अपनी बेटी के साथ वक्त बिताती हूं। तनाव कम करने के लिए बैडमिंटन खेलती हूं और जब शूट ट्रैवल खत्म हो जाता है, तब मैं पर्सनल ट्रैवल पर निकलती हूं, जहां कैमरा नहीं होता, बस मैं होती हूं। मैं कई डॉक्यूमेंट्रीज देखती हूं ताकि हर बार कुछ नया सीख सकूं। हर प्रोजेक्ट में मैं कुछ अलग करने की कोशिश करती हूं, कभी नैरेटिव, कभी एंगल, कभी कहानी कहने की शैली में। मेरे लिए यह निरंतर सीखने की प्रक्रिया है। मेरे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि मेरा पेशा मेरी पसंद है। मैं वही करती हूं जो मुझे पसंद है, लिखना, लोगों से मिलना और उनकी कहानियों को सच्चाई से बयां करना।


कैमरे से सीखी ईमानदारी
काम करना मुझे पसंद है। इस समय मैं एक नई डॉक्यूमेंट्री पर काम कर रही हूं जो आइ और मानव अनुभव के मेल पर आधारित है। यह अभी डवलपमेंट स्टेज में है, इसलिए बहुत कुछ नहीं कह सकती। लेकिन इतना जरूर कह सकती हूं, यह विषय ऐसा है जिस पर पहले कभी काम नहीं हुआ। मैंने अपने जीवन का लंबा समय कैमरे के साथ बिताया है।इसने मुझे सच्चाई का मूल्य समझना सिखाया है। मैंने कैमरे से सीखा कि हर कहानी को ईमानदारी और संवेदना के साथ कैद करो।

डॉक्यूमेंट्री स्टोरीटेलिंग कर रही मुख्यधारा के दर्शकों को आकर्षित
मैं चाहती हूं कि युवा फिल्ममेकर डॉक्यूमेंट्री को अपनाएं, नए विषय खोजें और कहानी कहने के नए तरीके तलाशें। इस डिजिटल युग में हमें वक्त के साथ चलना होगा। कई ऐसे कई प्रोफेशन हैं जो पहले नहीं थे। अब
स्टोरीटेलिंग भी बदल रही है , लेकिन जब तक सच्चाई और मानवता हमारे केंद्र में हैं, तब तक असली कहानियां कभी खत्म नहीं होंगी। यह कठिन जरूर है, लेकिन इसमें सच्चाई है, अर्थ है, आत्मा है। अपनी कहानियों को जिम्मेदारी और ईमानदारी से कहें, यही असली कला है। आज के समय में जब स्टोरीटेलिंग में ज्यादा पैसा आ रहा है, संसाधन बेहतर हो गए हैं और वित्तीय पहुंच बढ़ी है, तो तथ्य आधारित कहानियां भी एक बदलाव के दौर से गुजर रही हैं और ये बदलाव सकारात्मक है। मैं अब कुछ बेहतरीन डॉक्यूमेंट्रीज देख रही हूं, जिनकी कहानियां इतनी प्रभावशाली हैं कि वे फिक्शन स्टोरीटेलिंग को भी टक्कर दे सकती हैं। डॉक्यूमेंट्री स्टोरीटेलिंग अब एक ऐसे मुकाम पर पहुंच रही है, जहां वह मुख्यधारा के दर्शकों को आकर्षित कर रही है। यह हम जैसे लोगों के लिए एक बहुत अच्छा संकेत है।

फैक्ट-चेकिंग पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी
जब मैं पत्रकारिता में थी, विशेष रूप से टीवी पत्रकार के रूप में, तो वहां चीजें बहुत तेजी से करनी पड़ती थीं। ज्यादा समय नहीं होता था, रिपोर्ट तैयार करनी होती थी, कहानी तुरंत ऑन एयर भेजनी होती थी। अब जब मैं लॉन्ग-फॉर्म डॉक्यूमेंट्रीज बना रही हूं, तो मैं अभी भी पत्रकार ही हूं। मैं अब भी नई जानकारी ढूंढती हूं, तथ्यों की जाँच करती हूं और पत्रकारिता के सारे कौशल इस्तेमाल करती हूं। बस अब मेरे पास कहानी कहने का ज़्यादा समय होता है — रिसर्च टाइम, प्रोडक्शन टाइम और पोस्ट-प्रोडक्शन टाइम सभी पर गहराई से काम कर सकती हूं। अगर सतही तौर पर देखें तो यही सबसे बड़ा फर्क है। मैं चाहूंगी कि आज के पत्रकार फैक्ट-चेकिंग पर ज्यादा ध्यान दें।
मुझे लगता है कि आजकल चाहे टीवी जर्नलिज्म हो, डिजिटल मीडिया हो या कंटेंट क्रिएटर्स, सब जगह तथ्य-जांच (फैक्ट चेकिंग) को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। जबकि यह बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि आने वाले समय में एआइ पत्रकारिता और डॉक्यूमेंट्री दोनों में अहम भूमिका निभाने वाला है। इसलिए बड़ा सवाल यह है हम एआइ का इस्तेमाल अपनी कहानी कहने में कैसे करेंगे? यह हमें तय करना होगा कि तकनीक को हम अपने सत्य और संवेदना के साथ कैसे संतुलित करें।