
पाकिस्तान सीमा से सटे मरु जिले में शक्ति उपासना की परंपरा अत्यंत प्राचीन और गहरी है। यहां की विशिष्ट पूजा पद्धति में देवी स्वरूपों के प्रतीकों की आराधना होती है, जिन्हें स्थानीय भाषा में ठाळा कहा जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों की विभिन्न दिशाओं में स्थित मंदिरों में इन ठाळों की स्थापना की जाती है। विशेष रूप से आईनाथ माता के मंदिर प्रसिद्ध हैं, जहां भक्त अपनी अटूट आस्था के साथ धोक लगाते हैं।
किंवदंती के अनुसार, सदियों पूर्व मामडज़ी ने संतान प्राप्ति के लिए मां हिंगलाज की कठोर साधना की थी। सात दिन की पदयात्रा और अनगिनत उपासनाओं से प्रसन्न होकर माता ने वरदान दिया। मामडज़ी ने मां जैसी संतान की कामना की और उन्हें सात पुत्रियों व एक पुत्र का आशीर्वाद मिला। सबसे पहले आवड़ माता का जन्म हुआ, जिन्हें शक्ति की अधिष्ठात्री माना गया। उनके बाद छह बहनें और एक भाई जन्मे। ये सातों बहनें आज भी शक्ति अवतार के रूप में पूजनीय हैं। नवरात्र के दिनों में इन सभी मंदिरों पर विशेष श्रद्धा और उल्लास का वातावरण रहता है। शक्ति साधना की यह परंपरा जैसलमेर के लोगों में पीढिय़ों से संचित आस्था और विश्वास का प्रतीक है, जो आज भी उतनी ही दृढ़ता से कायम है।
शहर से करीब छह किलोमीटर दूर गजरूप सागर क्षेत्र की पहाड़ी पर स्थित यह मंदिर आत्मिक संतोष का केंद्र है। संकट और विपत्ति में श्रद्धालु यहां धोक देते हैं और मनोकामना पूरी होने पर दर्शन करना नहीं भूलते।
सीमा से सटे तनोट में स्थित यह मंदिर करीब 1200 वर्ष प्राचीन माना जाता है। राव तनुजी ने यहां ताना माता का मंदिर बनवाया था। वर्तमान में यह तनोटराय मातेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध है। भारत-पाक युद्ध में यहां गिरे बम नहीं फटे और वे आज भी परिसर में सुरक्षित रखे हैं। मंदिर की व्यवस्थाएं सीमा सुरक्षा बल के हाथों में हैं।
जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर दक्षिण स्थित इस मंदिर का निर्माण संवत 1432 में केशरीसिंह ने गोगली राजपूतों की सहायता से करवाया था। मान्यता है कि देवी ने यहां तेमड़ा राक्षस का वध किया।
मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूर स्थित इस मंदिर से जुड़ी मान्यता है कि देवी ने एक दैत्य का वध कर उसके सिर को च्देगज् बना दिया। इसी कारण देवी का नाम देगराय पड़ा।
27 किलोमीटर दूर स्थित पहाड़ी के पत्थर पूरी तरह काले हैं। यहां चतुर्दशी और नवरात्र पर देशभर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। सच्चे मन से की गई मनोकामना पूरी होने का विश्वास है।
पोकरण से 50 और जैसलमेर से 80 किलोमीटर दूर धोरों के बीच स्थित यह मंदिर शक्ति और भक्ति का केंद्र है। मान्यता है कि विक्रम संवत 1885 में जैसलमेर-बीकानेर युद्ध के दौरान माता ने चमत्कार दिखाए। बाद में भादरिया महाराज ने इसका जीर्णोद्धार कर विशाल गोशाला और एशिया के बड़े भूमिगत पुस्तकालय की स्थापना की।
मोहनगढ़ से 21 किलोमीटर दूर धोरों के बीच स्थित यह मंदिर कभी दुर्गम था। यहां मां पन्नोधरराय की पूजा पहले पठियाल में होती थी। 1991 में इसका जीर्णोद्धार हुआ। परिसर में सैकड़ों वर्ष पुराना कुआं और गोवर्धन पर देवी-देवताओं की छवियां अंकित हैं।
Published on:
23 Sept 2025 11:20 pm
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