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काउंसलिंग से आगे: कक्षा आधारित भावनात्मक सीख का समय

बच्चों को ऐसी संरचित भावनात्मक जगहों की जरूरत है, जो हर दिन, हर कक्षा और हर बातचीत का स्वाभाविक हिस्सा हों।

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जयपुर

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Opinion Desk

Nov 27, 2025

डॉ. हिमांगिनी राठौड़ हूजा, शिक्षाविद्

भारत का स्कूल शिक्षा तंत्र आज एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल में स्कूलों में बाल सुरक्षा, संवेदनशीलता और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी व्यवस्थाओं को मजबूत करने की स्पष्ट आवश्यकता रेखांकित की है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी 2020) भी साफ कहती है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि बच्चों के संपूर्ण विकास और भावनात्मक भलाई को प्राथमिकता देना है। ऐसे समय में यह समझना जरूरी है कि आज की प्रतिस्पर्धी, डिजिटल और तेज रफ्तार दुनिया में बच्चे केवल शैक्षणिक दबाव ही नहीं, बल्कि सामाजिक तुलना, पहचान से जुड़े तनाव और भविष्य की अनिश्चितताओं से भी जूझ रहे हैं।


ये दबाव इतने गहरे हैं कि भावनात्मक चुनौतियों को महज अकेले काउंसलिंग सत्रों से समझना या हल करना संभव नहीं रह जाता। बच्चों को ऐसी संरचित भावनात्मक जगहों की जरूरत है, जो हर दिन, हर कक्षा और हर बातचीत का स्वाभाविक हिस्सा हों। समूह संवाद, प्रतिबिंबात्मक शिक्षण और पीयर सपोर्ट जैसे तरीके बच्चों को यह अनुभव कराते हैं कि उनकी भावनाएं 'समस्याएं' नहीं, बल्कि जीवन के प्राकृतिक अनुभव हैं। जब बच्चों को सामूहिक रूप से सुना जाता है, तो वे भावनात्मक रूप से अधिक स्थिर, सामाजिक रूप से अधिक जागरूक और जीवन की चुनौतियों के लिए बेहतर तैयार होते हैं। व्यक्तिगत काउंसलिंग की तुलना में समूह आधारित सामाजिक-भावनात्मक गतिविधियां बच्चों के लिए कई बार अधिक प्रभावी और सहज साबित होती हैं। अधिकांश बच्चे एक-एक कर काउंसलर के पास जाने से हिचकते हैं, क्योंकि उन्हें जज किए जाने या लेबल लग जाने का डर रहता है। इसके विपरीत, जब कक्षा स्तर पर वेलबीइंग चेक-इन, समूह चर्चाएं और टीम आधारित गतिविधियां होती हैं, तो उन्हें महसूस होता है कि उनकी चिंताएं अकेली नहीं हैं। यह सामूहिक अनुभव उनमें सहानुभूति, सक्रिय सुनने और सहयोग जैसे जीवनभर काम आने वाले कौशल विकसित करता है।


जब शिक्षक और स्कूल भावनाओं को केवल 'व्यक्तिगत समस्या' नहीं, बल्कि एक सामूहिक मुद्दे के रूप में देखने लगते हैं, तब वे बच्चों की चुनौतियों को पैटर्न के रूप में पहचान पाते हैं। सामाजिक चिंता, प्रदर्शन का दबाव, ऑनलाइन तुलना, साथियों की ओर से किया जाने वाला बहिष्कार, पहचान का संकट- ये सभी अनुभव अक्सर व्यक्तिगत सत्रों में छिपे रह जाते हैं, जबकि समूह संवाद और शिक्षक-नेतृत्वित गतिविधियों में साफ उभरकर सामने आते हैं। इससे स्कूलों को अनुशासन, डिजिटल व्यवहार, समावेशन और कक्षा-संस्कृति से जुड़ी बेहतर नीतियां बनाने की दिशा और डेटा दोनों मिलते हैं। भारत में छात्र तनाव, आत्म-हानि और ड्रॉपआउट के बढ़ते मामलों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भावनात्मक संकट अचानक नहीं आता, वह धीर-धीरे बनता और गहराता है। यदि स्कूलों में प्रशिक्षित शिक्षक, पीयर सपोर्ट ग्रुप और नियमित भावनात्मक चेक-इन जैसी व्यवस्थाएं हों, तो बच्चों में जोखिम के संकेत प्रारंभिक चरण में ही पहचान में आ सकते हैं। इससे न केवल व्यवहार संबंधी कठिनाइयां और अनुशासन-संबंधी टकराव कम होते हैं, बल्कि बच्चों की आत्म-नियमन क्षमता, धैर्य व समस्या-समाधान कौशल भी मजबूत होते हैं।


विश्व स्तर पर हुए कई अध्ययनों और भारत में सामाजिक-भावनात्मक शिक्षा पर किए गए शोध स्पष्ट रूप से संकेत देते हैं कि जिन स्कूलों में इस प्रकार की सामाजिक-भावनात्मक प्रथाएं नियमित रूप से अपनाई जाती हैं, उन्हें बच्चों के समग्र विकास को प्रोत्साहित करने वाली सहायक संस्थाओं के रूप में देखा जाता है। शोध बताता है कि ऐसी स्कूल व्यवस्थाओं में सीखने के परिणाम अधिक सकारात्मक होते हैं, कक्षा में ध्यान, सहभागिता और उपलब्धि में सुधार दिखता है और शिक्षक-छात्र संबंध अधिक भरोसेमंद व अर्थपूर्ण बनते हैं। इन स्कूलों का वातावरण बच्चों के लिए अधिक सुरक्षित, सम्मानजनक और सहयोगी महसूस होता है- जहां वे 'देखे और सुने' जाने का अनुभव करते हैं, न कि केवल 'आंके जाने' का। ऐसी प्रणालियां और प्रथाएं स्वाभाविक रूप से माता-पिता के साथ विश्वास और सहयोग का मजबूत आधार बनाती हैं, क्योंकि परिवेश स्वयं यह संकेत देता है कि स्कूल बच्चे की भावनात्मक भलाई को गंभीरता से लेता है।


शिक्षा का उद्देश्य केवल समस्याओं को 'ठीक'काउंसलिंग से आगे: कक्षा आधारित भावनात्मक सीख का समय करना नहीं होना चाहिए, बल्कि ऐसा संवाद-समृद्ध वातावरण रचना होना चाहिए जिसमें समस्याएं कम जन्म लें और बच्चे स्वयं को अभिव्यक्त करने में सहज महसूस करें। सामाजिक-भावनात्मक पारिस्थितिकी कोई अतिरिक्त विकल्प नहीं, बल्कि बच्चों के सुरक्षित भविष्य, दीर्घकालिक सफलता और स्वस्थ समाज की बुनियादी आवश्यकता बन चुकी है। जब शिक्षक, अभिभावक और छात्र मिलकर एक संवाद-आधारित, सामूहिक भावनात्मक संस्कृति का निर्माण करते हैं, तब शिक्षा वास्तव में मानवीय बनती है और बच्चे सच्चे अर्थों में सशक्त नागरिक के रूप में उभरते हैं।