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कर्पूर चन्द्र कुलिश जन्म शताब्दी वर्ष : इमारतों को लाक्षागृह बनने से बचाना होगा

पत्रिका समूह के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश जी के जन्मशती वर्ष के मौके पर उनके रचना संसार से जुड़ी साप्ताहिक कड़ियों की शुरुआत की गई है। इनमें उनके अग्रलेख, यात्रा वृत्तांत, वेद विज्ञान से जुड़ी जानकारी और काव्य रचनाओं के चुने हुए अंश हर सप्ताह पाठकों तक पहुंचाए जा रहे हैं।

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आग विकराल रूप धर ले तो किसी को नहीं छोड़ती। जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल के ट्रोमा आइसीयू में लगी आग का ही नहीं बल्कि देशभर में होने वाले ऐसे हादसों का हश्र जानमाल के नुकसान से ही होता है। निर्माण सामग्री और इमारतों की साज-सज्जा में लगी सामग्री ज्वलनशील हो तो भवनों के लाक्षागृह बनते देर नहीं लगती। नब्बे के दशक में नई दिल्ली के विज्ञान भवन में अग्निकांड हुआ तब कुलिश जी ने एक आलेख में जो सवाल उठाए वे आज भी प्रासंगिक हैं। आलेख के प्रमुख अंश:

अग्नि का स्वभाव ही भक्षण करने का है। वेद में उसे उन्माद या भोक्ता कहा गया है। भोग्य पदार्थ को चट करने के बाद तो अग्नि स्वयं ही समाप्त हो जाती है। विज्ञान भवन का अग्निकाण्ड देश के वास्तु शिल्पियों एवं नीति निर्माताओं की आंखें खोलने के लिए एक ज्वलंत उदाहरण है। यह इतना गंभीर प्रश्न है कि हमें अपनी वास्तु नीति पर पूर्णत: नये सिरे से विचार करना होगा। इन सबके पीछे भी जो प्रबल कारण है वह हमारा आधुनिक वास्तु शिल्प जिसका आधार है सीमेंट, कंक्रीट और वायुविहीन भवन की रचना। सीमेंट, कंक्रीट, इस्पात, तारकोल, फोम, प्लाइवुड, रबरयुक्त गलीचे कृत्रिम धागे वाले पर्दे सनमाइका और पेंट वार्निश सब मिलकर अग्नि का स्तूप खड़ा कर देते हैं इन सबको भभकने का बहाना मात्र चाहिए। और एक बार भभक उठें तो कोई भी अग्निशामक यंत्र उन्हें तब तक नहीं दबा सकता जब तक कि संपूर्ण ज्वलनशील सामग्री ध्वस्त न हो जाए और अपने साथ दूसरे पदार्थों को भी चट न कर जाए। यदि भवन की रचना में खुलावट न हो तो अग्रि की तीव्रता की कोई सीमा नहीं रहती। अग्नि दुर्घटनाओं की जांच के विवरणों में जो मूलभूत बातें हमारे सामने आती है उनका निराकरण करने को हम तैयार हैं या नहीं। यह तो स्पष्ट ही है कि भवन सामग्री ही ज्वलनशील होने के कारण आग पर काबू नहीं पाया जा सकता है और भवनों को भस्मीभूत होने से नहीं रोका जा सकता। वास्तु शिल्प की किसी भी नीति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यह होना चाहिए कि वह मानव शरीर के लिए बनाई जा रही है। मानव शरीर जिन पदार्थों पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और प्रकाश से बना हुआ है उन पदार्थों की भूमिका प्रस्तावित भवन में क्या होगी। वर्तमान में वास्तु शिल्पी का सर्वाधिक आग्रह ले आउट, फिटिंग और चमक-दमक पर रहता है और नए नए आकार-प्रकार बनाकर भवन खड़े कर देना उसका एकमात्र प्रयास रहता है। मुझे कटु भाषा इसलिए लिखनी पड़ रही है कि आज का वास्तु शिल्पी साधारण बातों को भी ध्यान में नहीं रखना चाहता जिनका संबंध हमारे वायुमंडल, पर्यावरण और मानव शरीर से रहता है।

सीमेंट-कंक्रीट और भी विनाशकारी
भवन निर्माण के लिए आजकल जो आधारभूत सामग्री उपयोग में ली जाती है वह सीमेंट-कंक्रीट ही मानव शरीर के लिए अतीव हानिकारक है। भारत जैसे ताप युक्त जलवायु में तो सीमेंट कंक्रीट मानवदेह के लिए और भी अधिक विनाशकारी है। सीमेंट के कारण वायु का संचार तो बन्द रहता ही है, इस्पात के सरियों के साथ मिलकर वह ताप संचार को बढ़ाने वाला भी होता है। इसके साथ ही जब भवन के भीतर रसायनमय गलीचे, पर्दे, प्लाईवुड, फोम, कोलतार इत्यादि ज्वलनशील पदार्थ भरे हों तो अग्नि ग्रहण करने में विलम्ब ही नहीं होता। विज्ञान भवन यद्यपि सीमेंट कंक्रीट का बना हुआ नहीं था परन्तु उसके भीतर की सामग्री सारी ज्वलनशील थी। भवन निर्माण की सामग्री प्राकृतिक होने के बावजूद प्रभूत मात्रा में रासायनिक पदार्थों के प्रयोग के कारण इस भवन को विनाश से नहीं बचाया जा सका।

(4 अप्रेल 1990 को ‘विज्ञान भवन का हवन हो गया’ आलेख के अंश )

वास्तु शास्त्र में भी प्रकृति पूजा
प्रत्येक कर्मकाण्ड के मंत्रों में हमारे यहां नदी, पशु-पक्षी, ग्रह-नक्षत्र आदि सभी को पूजने का उपदेश है। यह बताया गया है कि जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रकृति को किस प्रकार अनुकूल बनाया जाए। हमारे यहां गृह प्रवेश का जो संस्कार होता है उसमें गृह प्रवेश से पूर्व वास्तुदेवता मण्डल की स्तुति की जाती है। पृथ्वी का आह्वान किया जाता है। इसको धारण करने वाले वायुदेवताओं और शेषनाग की पूजा होती है। दश दिग्पालों, दिशाओं के अधिष्ठाता देवताओं की स्तुति समृद्धि की कामना से की जाती है।
(कुलिश जी के आलेखों पर आधारित पुस्तक ‘दृष्टिकोण’ से )