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Opinion : जनजातीय समुदायों को अरुणाचल की सीख

अरुणाचल से आई खबर बेहद सुकून भरा संदेश लेकर आई है। यहां दो समुदायों ने वर्षों से चली आ रही प्रतिद्वंद्विता को खत्म करने का फैसला किया है। अरुणाचल की सबसे बड़ी जनजातियों में शामिल आदि और जनसंख्या में छोटी जनजाति अपातानी की वर्षों पुरानी कलह पर विराम लग गया है। दोनों समुदायों के प्रमुखों […]

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अरुणाचल से आई खबर बेहद सुकून भरा संदेश लेकर आई है। यहां दो समुदायों ने वर्षों से चली आ रही प्रतिद्वंद्विता को खत्म करने का फैसला किया है। अरुणाचल की सबसे बड़ी जनजातियों में शामिल आदि और जनसंख्या में छोटी जनजाति अपातानी की वर्षों पुरानी कलह पर विराम लग गया है। दोनों समुदायों के प्रमुखों ने एक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए और बदला लेने वाली पुरानी परंपराओं से तौबा कर ली। इतना ही नहीं कुछ ऐसे ऐतिहासिक फैसले लिए गए जो आने वाले समय में दोनों ही संप्रदायों के लिए विकास की नई इबारत लिखेंगे। अब इन दोनों ही समुदायों में अंतरजनजातीय विवाह होंगे, सांस्कृतिक आदान प्रदान होगा और दोनों ही समुदायों के युवा एक दूसरे की संस्कृति को सीखेंगे। घोषणा पत्र में ऐसे 13 प्रस्तावों पर सहमति बनी है जो आने वाले समय में विवादों को विराम लगाएंगे और दोनों समुदायों के बीच प्यार, सम्मान और विश्वास बढ़ाएंगे। सुदूर पूर्वोत्तर से आया ये संदेश पूरे विश्व के लिए एक सीख लेकर आया है।
खास-तौर पर हमारे ही देश के विभिन्न राज्यों में प्रतिद्वंद्विता के कारण वर्षों से मतभेद झेल रही अनेकों जनजातियों के लिए यह पहल महत्वपूर्ण है। चाहे मणिपुर के कूकी, नागा और मैतेई का विवाद हो या मध्यप्रदेश में गोंड व कोरकु का मामला हो। झारखंड व पश्चिम बंगाल में संताल व मुंडा के मसले हों या राजस्थान में भील व मीणा का। त्रिपुरा में रींग व ब्रू समुदाय की बात हो या मेघालय के गरो व खासी की बात हो। वर्षों से ऐसे ही न जाने कितने समुदाय आपसी प्रतिद्वंद्विता में सिर्फ गंवा ही रहे हैं। अपना सुकून तो गंवा ही रहे हैं तो हिंसक घटनाओं में जान-माल पर भी बात आ जाती है। बदला लेेने की प्रथाओं को गलत मानते हुए भी झूठे अहंकार और दंभ के चलते उसे छोड़ नहीं पा रहे हैं।
अरुणाचल की आदि और अपातानी समुदाय ने इन सभी को एक रास्ता दिखाया है। एक रास्ता बेवजह के विवादों से मुक्ति पाने का। आपसी सामंजस्य से आने वाली पीढिय़ों के लिए विकास और उन्नति का नया मार्ग प्रशस्त करने का। न सिर्फ ये नए जमाने से कदमताल कर सकेंगे बल्कि एक दूसरे की सांस्कृतिक धरोहरों को संभालते हुए आगे बढ़ेंगे। जाने कितने मुकदमे आपसी सहमति से खत्म होंगे। ये सीख सिर्फ जनजातियों के लिए नहीं है। ये प्रतिद्वंद्विता के युग में एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति अपना चुके हर व्यक्ति विशेष के लिए है। एक दूसरे को धकेलकर आगे बढऩे की जगह एक दूसरे को संभालते हुए आगे बढऩा ही हमारी भारतीय संस्कृति की पहचान है। आदि और अपातानी ये समझ चुके हैं। अन्य सभी को चिंतन करना है।