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चेन्नई में प्रवासी राजस्थानियों के अनूठे प्रयास, सौहार्द: परंपरा और संस्कृति के पर्याय मारवाड़ी

तमिल नागरिकों का सम्मान किया जाना भी एक योजना का अंग है। राजस्थानी तमिल सेवा पुरस्कार के नाम से प्रतिवर्ष अपने-अपने क्षेत्र की प्रतिभाओं का सम्मान भी प्रवासी राजस्थानी करते हैं।

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फोटो: पत्रिका

मारवाड़ी के नाम से पहचान रखने वाले प्रवासी राजस्थानी जिस भी प्रदेश में गए वहां के विकास में तो भागीदार रहे ही, राजस्थान में अपनी मातृभूमि का भी कर्ज चुकाने में आगे रहे। चेन्नई में प्रवासी राजस्थानियों की पहल तो अलग ही है, जिसमें वे अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े स्थानीय लोगों व वरिष्ठ नागरिकों को सम्मानित करते हैं। अस्सी वर्ष से ज्यादा आयु के लोगों का तो घर-घर जाकर पाद प्रक्षालन कर पुण्य कमाते हैं। वरिष्ठ नागरिकों के लिए केन्द्र बनाकर उनके मनोरंजन, फैलोशिप व दूसरी कल्याण योजनाओं का संचालन करते हैं सो अलग। तमिल नागरिकों के सम्मान के कार्यक्रम भी होते हैं।

पत्रिका के दक्षिण-पूर्वी राज्यों में प्रसार का एक बड़ा लाभ यह हुआ कि एक प्रदेश के प्रवासी राजस्थानी अन्य प्रदेशों के प्रवासियों की गतिविधियों से जुड़ते चले गए। एक माला की तरह जुड़ गए- एक होकर कर्म करने लगे। सामूहिक भूमिका सामने आने से परिणाम भी एक आकृति लेने लगे। वैसे भी साल-सदियों से प्रवास करने वाले मूलत: अपने-अपने प्रदेशों में भागीरथ बन गए। प्रदेशों की विकास यात्रा में प्रमुख सहभागी हो गए। वहां के व्यापार-उद्योगों के रूप में अग्रणी नागरिक बन गए।

प्रवासी राजस्थानियों को मूल रूप से ‘मारवाड़ी’ ही कहा जाता है। आधा राजस्थान, कुछ अधिक ही रेगिस्तान या मरुप्रदेश है। जहां न पानी था, न ही खेती। तब कमाने निकले थे- डोरा-लोटा लेकर। आज अपने-अपने प्रदेशों में स्वर्णिम छटा बिखेर रहे हैं। चारों ओर स्कूल-अस्पतालों के साथ-साथ सेवा कार्यों की लबी शृंखला हर प्रदेश में प्रवासी मारवाड़ियों ने बना रखी है। गौरवपूर्ण जीवनशैली कई जगह तो स्थानीय वासियों के लिए ईर्ष्या का कारण बनने लगी है।

बीच-बीच में स्थानीय राजनीति के चलते मारवाड़ियों के विरुद्ध हिंसात्मक अभियान भी चल पड़ते हैं। डर के मारे लोग अन्य प्रदेशों में पलायन कर जाते हैं। व्यापार-उद्योगों के स्थायी तंत्र ध्वस्त हो जाते हैं। नेताओं में संवेदना नहीं होती- वरना प्रदेश को आगे बढ़ने की प्रेरणा देते। खैर!जो चिंतन का विषय है वह है नागरिकों का सम्मान। किसी भी प्रदेश में सत्ता के बाहर यह सम्मान किसी को प्राप्त नहीं होता। सभी अपने ऊपर वालों का ही सम्मान करते हैं- चाहे स्वार्थ से, चाहे भय से। अनुभव यह कहता है कि स्थानीय लोगों का जितना सम्मान एक मारवाड़ी स्थानीय संस्था करती है, उतना तो स्थानीय लोग भी आपस में नहीं करते। पहली बात तो यह है कि अन्य प्रदेशों के लोग न इतने प्रवासी बने, न कहीं जाकर वहां के विकास को गति दे पाए। बहुत कम ही घर से दूर जाकर बड़े बन पाए। इसीलिए उनके बारे में अन्य प्रदेशों के लोगों को ज्यादा जानकारी ही नहीं है। क्या यह शुभ संकेत है?

आज तो मणिपुर-कश्मीर जैसे हालात स्थानीय स्तर पर ही होने लग गए। ऐसे में भी सौहार्द का, परंपरा और संस्कृति का पर्याय बनकर मारवाड़ी प्रवास कर रहे हैं। भले ही राजस्थान की सत्ता का व्यवहार उतना सम्मानजनक नहीं होगा। हाल ही चेन्नई के मारवाड़ियों के सांस्कृतिक योगदान को देखने का अवसर मिला। शायद अन्य प्रदेशों में भी कमोबेश ऐसा ही होगा। वरिष्ठ नागरिकों के लिए (साठ साल से बड़े) भावांजलि मिलन केन्द्र- जहां मनोरंजन, फैलोशिप, कल्याण योजनाएं उपलब्ध हैं। अस्सी वर्ष की आयु वालों का घर-घर जाकर सम्मान किया जाता है। उनके पाद प्रक्षालन (पांव धोना) का कार्यक्रम नियमित किया जाता है। दूसरी ओर हम रोज पढ़ते हैं कि मां-बाप को धक्के मारकर बाहर करने लगे हैं। वृद्धाश्रमों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। सरकारी योजना तो फाइलों में ही बूढ़ी हो जाती है।

तमिल नागरिकों का सम्मान किया जाना भी एक योजना का अंग है। राजस्थानी तमिल सेवा पुरस्कार के नाम से प्रतिवर्ष अपने-अपने क्षेत्र की प्रतिभाओं का सम्मान भी प्रवासी राजस्थानी करते हैं। एक तरह से यह पुरस्कार तमिल समुदाय और इस भूमि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का भाव है। तमिलनाडु के ऐसे व्यक्तियों व संस्थाओं को सम्मानित किया जाता है जो नि:स्वार्थ भाव से समाजसेवा में जुटे हैं। सेवा की यह भावना दूसरे रूप में तमिल और मारवाड़ियों के बीच संबंधों को मजबूत करने वाली है। राजस्थानी तमिल सेवा पुरस्कार केवल एक सम्मान मात्र ही नहीं है। यह सद्भाव का सेतु है जो तमिलों और मारवाड़ियों के बीच संबंधों को मजबूत करने वाला है।

यहां प्रवासी राजस्थानियों का ध्येय वाक्य भी है- ‘हम आपके साथ हैं- आदर में, सेवा में और साझी मानवता में।’ सम्मान का यह कार्य यह भी याद दिलाता है कि सेवा के लिए किसी जाति, भाषा या भौगोलिक सीमा के बंधन की जरूरत नहीं है। प्रवासी राजस्थानी सम्मान की इस पहल को तमिल नागरिकों और तमिलनाडु के लिए अपनी अतिरिक्त सेवा मानते हैं। पिछले कुछ मौके ऐसे भी आए जब तमिलों का मारवाड़ियों के साथ गलतफहमी में टकराव भी हुआ। यह पुरस्कार इस बात को याद रखने के लिए भी है कि सेवा, सम्मान और सद्भाव किसी गलतफहमी से कहीं अधिक मजबूत है। ईमानदारी से काम किया जाता है जो यह सामुदायिक संबंधों को और मजबूती देता है।

प्रवासी राजस्थानी, जिस तरह से स्थानीय लोगों को सम्मानित करते हैं वैसे मुझे ध्यान नहीं कि किसी भी प्रदेश में राजस्थानियों के लिए ऐसे सम्मान की व्यवस्था है-स्थानीय लोगों के द्वारा। शायद हर प्रदेश में चुनावी चंदा देने वालों की अग्रिम पंक्ति में प्रवासियों का नाम देखने को मिलेगा, जबकि यह प्रदेश देने के लिए ही जाना जाता है। पीढ़ियां बदल गईं, शिक्षा और दृष्टि बदल गई, किन्तु हम भाषा-जाति के नाम पर ज्यादा सिमट गए। जो पहले पूरे देश का अंग थे, आज सिमट कर छोटे-छोटे बनना चाह रहे हैं। उनकी संतानों को शेष राष्ट्र में कैसा सम्मान मिलेगा, इस पर चिंतन होना चाहिए। छोटा होने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता। बड़ा होने के लिए त्याग-सहनशक्ति चाहिए।

  • gulabkothari@epatrika.com