
Indore News: मुस्लिम सेल्समैन को सीतलामाता बाजार की दुकानों से हटाने का मामला गरमाया था, दिग्विजय सिंह विरोध के बीच पैदल चलकर ही पहुंचे थे सराफा थाना। आखिर अचानक क्यों दिखा ये बदलाव ...
Sitlamata Bazar Controversy Indore: भारत एक ऐसा देश रहा है, जिसे हमेशा से उसकी साझी संस्कृति (composite culture) पर गर्व महसूस होता रहा है। मंदिरों की घंटियों के साथ मस्जिदों की अजान की गूंज को साथ लेकर हमने सदियों तक यही जीवन जिया है। गली-कूचों में मिठाइयों की दुकानें हों, कपड़ों के शोरूम, सब्जी मंडियों और चाय की टपरियों पर धर्म से बड़ा केवल एक ही स्वाद चखा है, मिठास में डूबे रिश्तों का। लेकिन हाल ही में इंदौर के कपड़ा बाज़ार से मुस्लिम व्यापारियों को हटाने की कोशिश और उसके बाद राजनीतिक बयानों ने इस साझेपन की मिठास में जहर घोलना शुरू कर दिया है।
प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक, इंदौरके प्रसिद्ध कपड़ा मार्केट शीतलामाता बाजार में कुछ राजनीतिक संगठनों ने मुसलमान व्यापारियों को निशाना बनाते हुए उनके लिए माहौल को असहज बना दिया है। आरोप लगा कि उनके स्टॉल और दुकानों को हटाने का दबाव डाला गया, वो भी यह कहते हुए कि 'यहां केवल हिंदू व्यापारी ही व्यापार करेंगे।' तर्क बनाया लव-जिहाद को रोकना है… इसी बीच भोपाल से सांसद साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का बयान इस विवाद को और हवा देता है। उन्होंने खुले मंच से कहा कि 'विधर्मी अगर मंदिर के आस-पास भी दिखें तो उनकी ठुकाई लगाओ, उनसे कुछ खरीदो मत, उनका कुछ खाओ मत।' यह बयान न केवल माहौल को और तनावपूर्ण बनाता है बल्कि, समाज में पहले से मौजूद ध्रुवीकरण की आग में घी डालने जैसा है।
इंदौर को हमेशा 'मिनी मुंबई' कहा जाता रहा है। यहां के कपड़ा बाज़ार, सर्राफा, छप्पन दुकानों की रौनक और उससे भी बढ़कर भाईचारे की एक नहीं कई मिसाल देशभर में सुनाई जाती हैं। दशकों से हिंदू-मुसलमान व्यापारी यहां एक-दूसरे के साथ दुकानें चलाते आए हैं। पार्टनरशिप में कारोबार करते आए हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग हिस्सों में पहचान की राजनीति तेज हुई है। और भयावह स्थिति ये है कि यह राजनीति आर्थिक लेन-देन तक को धर्म के चश्मे से देखने लगी है।
बाजार वह जगह होती है जहां ग्राहक केवल कीमत की टोह लेता है, क्वालिटी देखकर सामान खरीदता है। धर्म… धर्म देखकर कभी किसी को कीमत पूछते या सामान खरीदते पहली बार देखना पड़ेगा। क्योंकि जब राजनीतिक ताकते नफरत के एजेंडे को साधने के लिए बाजार की सादगी पर जहर के छींटे देती हैं, तो सीधे तौर पर आम इंसान की आम इंसान का रोजी-रोटी कमाना नामुमकिन हो जाएगा।
शुक्र है कि हमारा देश लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रतीक है। लोकतंत्र में सांसदों की जिम्मेदारी समाज को जोड़ने की होती है। लेकिन जब वही देश को जोड़ने वाले नेता यह कहें कि ''विधर्मी घर की दहलीज लांघे तो काट डालो…मंदिर में या उसके आसपास भी दिखे तो उसकी ठुकाई लगाओ'' तो, यह कहने मात्र को शब्दों में पिरोया हुआ एक बयान नहीं रह जाता, बल्कि हिंसा का अप्रत्यक्ष आह्वान बन जाता है।
लोकतांत्रिक देश के नेता होने के नाते ऐसे बयानबजी करने वालों को यह बात समझनी होगी कि जमीन पर बैठे कार्यकर्ता या आम समर्थक उनके हर शब्द को को गंभीरता से लेते हैं और नफरत भरे ऐसे बोल, सामाजिक रिश्तों को भस्मासुर बनकर निगल जाते हैं।
जब किसी धर्म विशेष को व्यापार से बाहर धकेला जाएगा तो, बाजार की प्रतिस्पर्धा टूटेगी। उपभोक्ता का विकल्प कम होगा और आखिरकार आम ग्राहक ही महंगे दाम का बड़ा नुकसान झेलेगा।
मोहल्लों में साथ रहने, त्योहारों पर मिठाई बांटने और आपसी रिश्तों की परंपरागत तिजोरियों के ताले कमजोर हो जाएंगे। तब यह केवल व्यापार का मसला नहीं, रिश्तों के ताने-बाने का विघटन होगा। जिसे राजनीति करने वाले चोर तोड़ जाएंगे।
लोकतंत्र पर चलने वाले भारत की असली ताकत उसकी विविधता में है। जब यही विविधता खतरे में दिखेगी तो, अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी भारत की लोकतांत्रिक छवि धूमिल होगी।
अगर हम पीछे देखें तो भारत के इतिहास की झलक चाहे वह स्वतंत्रता संग्राम की हो या व्यापारिक इतिहास की हिंदू और मुस्लिम हमेशा एक साथ और डटकर खड़े नजर आते हैं। इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, उज्जैन जैसे शहरों में मुसलमानों के बिना बाजारों की कल्पना करना अपने आप में ही खुद को बाजारों से काटना होगा। आगे बढ़ने के बजाय पीछे संघर्षों की गर्त में रहना होगा। ये व्यापारी सिर्फ सामान नहीं बेचते बल्कि, संस्कृति की साझेदारी भी करते हैं। तो भूलना नहीं होगा कि… भारत में शादी-ब्याह में कपड़े, उनसे आने वाली इत्र की खुशबू, और हर आंगतुक को खिलाई जाने वाली मिठाई, हर चीज इसी भाईचारे और मोहब्बत की इबारत गढ़ते हैं।
भाईचारे का मतलब केवल एक साथ खाना-पीना नहीं, बल्कि मुश्किल वक़्त में एक-दूसरे का सहारा बनना है। यही वह पूंजी है जो समाज को बार-बार संकटों से निकालती रही है। अगर यह पूंजी खतम हो गई, तो केवल दीवारें बचेंगी, रिश्ते नहीं।
-1- राजनीतिक दलों को आत्मसंयम दिखाना होगा, वोट बैंक के लिए नफरत की राजनीति लंबी पारी नहीं खेल सकती। नेताओं को समझना होगा कि समाज का नुकसान आखिर में साख उन्हीं की खराब करता है।
-2- प्रशासन की जवाबदेही की बड़ी भूमिका होती है। इसलिए प्रशासन को बाजारों में किसी भी तरह के भेदभाव की कोशिशों पर तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए।
-3- सिविल सोसाइटी की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो चलती है। व्यापारी संघ, सामाजिक संगठन और स्थानीय नागरिकों को मिलकर यह तय करना होगा कि किसी को धर्म के नाम पर बाहर नहीं किया जा सकता है। सोचना होगा कि ऐसा वो सोच भी कैसे सकते हैं।
-4- युवा पीढ़ी की जिम्मेदारी सबसे अहम है। आज का युवा सोशल मीडिया पर बहुत एक्टिव रहता है। उन्हें चाहिए कि नफरत फैलाने के बजाय भाईचारे और एकता के संदेश को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें। जीत तभी कदम चूमेगी।
कुल मिलाकर कहना होगा कि इंदौर के सीतला माता बाजार (Sitlamata Bazar Controversy) का यह विवाद केवल एक शहर या एक समुदाय का मुद्दा नहीं है। यह हमारे समाज के बदलते स्वभाव की ओर इशारा है। सदियों से साथ जिये गए रिश्तों को अचानक से तोड़ फेंकना क्या इतना आसान होगा? तोड़ने से पहले खतरे को भी भांप लेना, क्योंकि व्यापार की गली में नफरत के रंग उड़ते हैं तो उसका धुआं पूरे समाज की आंखों में धुंधलापन ला देगा।
एक पुरानी बात याद आई है... 'बाजार सबका होता है, लेकिन धर्म किसी का नहीं।' अगर इंदौर का भाईचारा टूट गया, तो केवल कपड़े का कारोबार ही नहीं, समाज का ताना-बाना भी उधड़ जाएगा। और यह नुकसान किसी एक समुदाय की भरपाई का हिस्सा नहीं होगा... समूचे लोकतंत्र के गौरवपूर्ण समाज भारतवर्ष का होगा...।
Published on:
30 Sept 2025 04:17 pm
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