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Centenary year of RSS: संघ प्रचारक आधुनिक ऋषि, ‘वेतन’ है समाज की मुस्कान, राष्ट्र का उत्थान

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारकों का जीवन सादगी और समर्पण की जीवंत मिसाल है जिनकी संघ को बड़ा बनाने में अहम भूमिका है। प्रचारकों का असली वेतन है- समाज की मुस्कान, राष्ट्र का उत्थान।

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शताब्दी वर्ष

Rajasthan News: कभी सोचा है, कोई व्यक्ति अपना पूरा जीवन केवल समाज के लिए जिए... न घर-परिवार की चिंता, न करियर की दौड़ और न ही निजी सुख-सुविधाओं का मोह? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रचारक ठीक ऐसा ही जीवन जी रहे हैं। त्याग और सेवा के पर्याय इनकी सुबह शाखा से शुरू होती है और रात समाज उत्थान की योजनाओं में ढल जाती है। प्रचारक अपने घर-परिवार से दूरी बना लेते हैं। जीवन भर अविवाहित रहकर वे समाज को ही अपना परिवार मानते हैं। उनके लिए निजी महत्वाकांक्षा का कोई अर्थ नहीं। उनका असली वेतन है- समाज की मुस्कान, राष्ट्र का उत्थान। संघ समर्थकों में उन्हें आधुनिक ऋषि कहा जाता है।

मिलता है सिर्फ निर्वाह भत्ता

आप यह जानकर हैरान होंगे कि संघ प्रचारकों को किसी तरह का वेतन नहीं मिलता। उन्हें केवल निर्वाह भत्ता-यानि बुनियादी खर्चों के लिए थोड़ी सी राशि दी जाती है। वह भी क्षेत्र और जरूरत के हिसाब से। रहने और खाने की व्यवस्था सामुदायिक होती है, इसलिए व्यक्तिगत खर्च न्यूनतम। वे कभी किसी विद्यार्थी से मिलते हैं, तो कभी किसी किसान से। उनका लक्ष्य साफ है- समाज का अंतिम व्यक्ति भी संगठन और राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़े। आज भौतिक सुख-सुविधाओं की ओर भाग रही दुनिया में प्रचारक सादगी और सेवा का जीवंत उदाहरण हैं।

सादगीपूर्ण जीवन है सादगी की मिसाल

  • घर परिवार से दूरी, राष्ट्र व व्यक्ति निर्माण ही लक्ष्य
  • यात्रा के दौरान थैले में सिर्फ 2-3 जोड़ी कपड़े और कुछ किताबें ही रखते हैं।
  • कोई स्थाई निवास नहीं होता, जहां समाज की जरूरत, वहीं उनका ठिकाना।
  • बस, ट्रेन या साइकिल से दूर-दराज गांवों तक पहुंचते हैं।

यह है प्रचारक का जीवन

-ऐसे बनते हैं प्रचारक: वर्षों तक शाखा, प्रशिक्षण शिविर और संगठनात्मक कार्यों में खुद को खपा देने के बाद स्वयंसेवक खुद तय करता है कि जीवन संघ को समर्पित करना है।
-अनुशासित जीवनचर्या: सुबह जल्दी उठना, नियमित योग-व्यायाम, पढ़ाई और शाखा, फिर प्रवास व संपर्क। डायरी में लगभग हर घंटे का हिसाब।
-पुस्तक पढने की आदत: पढ़ने-लिखने की आदत अनिवार्य ताकि वे समाज में वैचारिक संवाद कर सकें।
-व्यक्तिगत पहचान का लोप: व्यक्तिगत नहीं, कार्य ही उसकी पहचान है। कभी सुर्खियां नहीं बनते।
-संपर्क और संवाद कला: किसी भी वर्ग, जाति, भाषा या प्रदेश में जाकर सहजता से घुल-मिल जाते हैं। आदर्श जीवन प्रस्तुत करते हैं।