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परमाणु संतुलन के लिए सटीकता व तकनीक जरू

विनय कौड़ा, अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार

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सितंबर की शुरुआत में चीन द्वारा अपनी परमाणु त्रयी और अत्याधुनिक हथियारों का प्रदर्शन किया गया, जिसके उत्तर में इस सप्ताह अमेरिका ने अटलांटिक महासागर में पनडुब्बी से चार परमाणु-सक्षम मिसाइलों का परीक्षण कर वैश्विक शक्ति संतुलन की गंभीरता को उजागर किया। परमाणु हथियारों को लेकर अब तक धारणा यही रही कि जिसके पास अधिक वारहेड होंगे, उसकी सामरिक शक्ति उतनी ही मानी जाएगी। किंतु इक्कीसवीं सदी के जटिल भू-राजनीतिक और तकनीकी परिदृश्य ने इस सोच को पलट दिया है। अब शक्ति का आकलन मात्र संख्या से नहीं, बल्कि उस प्रणाली से होता है, जो परमाणु हथियारों के प्रभावी उपयोग को सुनिश्चित करे।

यदि किसी राष्ट्र के पास सैकड़ों बम हों, परंतु उन्हें दागने के साधन अविश्वसनीय हों या प्रथम हमले में ही निष्क्रिय हो जाएं, तो वह शक्ति केवल भ्रमजाल बनकर रह जाती है। इसी सोच से ‘परमाणु त्रयी’ की अवधारणा जन्म लेती है – भूमि, वायु और समुद्र आधारित वह प्रणाली, जो सुनिश्चित करती है कि कोई भी राष्ट्र प्रथम परमाणु हमले के बाद भी जवाब देने में सक्षम रहे। भारत ने भी इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। अग्नि मिसाइल शृंखला, विशेषकर अग्नि-5, भारत की भूमि आधारित निवारण क्षमता की रीढ़ बन चुकी है, जिसने उसे क्षेत्रीय शक्ति संतुलन का सशक्त आधार प्रदान किया है। वायु आधारित क्षमता में मिराज 2000, सुखोई-30 एमकेआइ, जगुआर, राफेल जैसे विमानों के साथ ब्रह्मोस एयर-लॉन्च्ड मिसाइलों का युग आया है, जो हमारी वायुसेना को आवश्यक लचीलापन प्रदान करता है। हालांकि पूरे विश्व में यह पक्ष आज भी कमजोर माना जाता है क्योंकि विमान प्रथम हमले झेलने में सबसे नाजुक होते हैं। स्वदेशी परमाणु चालित पनडुब्बी आइएनएस अरिहंत की नौसेना में तैनाती भारत के लिए एक ऐतिहासिक पड़ाव था, जिससे न केवल तकनीकी आत्मनिर्भरता मिली, बल्कि समुद्र से प्रतिकार की क्षमता भी सुनिश्चित हुई। यह पनडुब्बी के-15 सागरिक (700 किमी) और के-4 एसएलबीएम (3,500 किमी) मिसाइलों से लैस है। इस दिशा में अगला कदम पिछले साल आइएनएस अरिघाट के रूप में सामने आया, जो भारत की दूसरी स्वदेशी परमाणु बैलिस्टिक मिसाइल पनडुब्बी है।

लेकिन उपलब्धियां ही अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकतीं। यदि भारत सच में सुनिश्चित ‘सेकंड स्ट्राइक’ चाहता है तो अरिहंत और अरिघाट पर्याप्त नहीं हैं। रणनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि कम से कम चार पनडुब्बियां हमेशा सक्रिय रहनी चाहिए, ताकि यदि प्रथम वार में एक नष्ट भी हो जाए तो अन्य तुरंत जवाब देने में सक्षम हों। इसी रणनीतिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए आइएनएस अरिधमन, जो भारत की तीसरी स्वदेशी परमाणु चालित बैलिस्टिक मिसाइल पनडुब्बी है, को जल्द ही नौसेना में शामिल किया जाएगा।

दुनिया की तकनीकी दौड़ इतनी तेज हो चुकी है कि पुराने पैमानों से शक्ति का आकलन करना निरर्थक है। चीन हाइपरसोनिक प्रक्षेपास्त्रों को लगातार आगे बढ़ा रहा है, जिनसे किसी भी पारंपरिक मिसाइल रक्षा को अप्रभावी ठहराया जा सकता है। पाकिस्तान ने ऐसे सामरिक हथियारों पर भरोसा दिखाया है, जिन्हें गंभीर रणनीति की बजाय युद्ध की अव्यवस्था का हिस्सा कहना अधिक उचित होगा। इन चुनौतियों के बीच यदि भारत यह विश्वास उत्पन्न नहीं करता कि कोई भी प्रथम हमला उसकी डिलीवरी प्रणालियों को निष्क्रिय नहीं कर पाएगा तो हमारी ‘नो फर्स्ट यूज’ नीति की नैतिक आधारशिला पर सवाल उठाए जाएंगे। मिसाइलों की सटीकता और क्षमता को और बढ़ाने पर ध्यान देना अनिवार्य है। अग्नि-5 ने भारत को गंभीर विकल्प जरूर उपलब्ध कराए हैं, लेकिन अब हमें मल्टीपल इंडिपेंडेंटली टार्गेटेबल री-एंट्री व्हीकल यानी ‘एमआइआरवी’ तकनीक तथा हाइपरसोनिक प्रणालियों की ओर निर्णायक प्रगति करनी ही होगी। इससे हमारी क्षमता केवल आक्रामक ही नहीं, बल्कि संतुलनकारी बनेगी। साथ ही परमाणु कमांड और कंट्रोल प्रणाली को साइबर हमलों से सुरक्षित बनाना भी उतना ही आवश्यक है। अगर कमांड सिस्टम मजबूत और स्वतंत्र नहीं हो, तो हथियारों पर हमेशा खतरा मंडराता रहता है। इसी वजह से भारत का अपना नेविगेशन सिस्टम ‘नैविक’ बहुत जरूरी है, क्योंकि आज की मिसाइलों को सही दिशा देने के लिए सैटेलाइट की मदद जरूरी होती है। वायु आधारित क्षेत्र में भी केवल मौजूदा विमानों पर निर्भर न रहकर दीर्घकालीन रणनीति में स्टील्थ बॉम्बर्स और अत्याधुनिक एयर-लॉन्च्ड क्रूज मिसाइलों को स्थान देना होगा।

भारत की परमाणु रणनीति का सार है न्यूनतम विश्वसनीय निवारण। इसका लक्ष्य हथियारों की दौड़ में आक्रामक विस्तार करना नहीं, बल्कि अवश्यम्भावी प्रतिक्रिया का भरोसा जगाना है। परमाणु नीति का आधार संयम और जिम्मेदारी है, किंतु यह संयम तभी सार्थक दिखाई देगा जब उसके पीछे प्रौद्योगिकी की ठोस शक्ति खड़ी होगी। परमाणु हथियारों की असली ताकत उनकी संख्या में नहीं, बल्कि इस भरोसे में होती है कि जरूरत पड़ने पर उनका इस्तेमाल जरूर होगा। यदि भारत अपनी परमाणु त्रयी को समयानुकूल, आधुनिक और गतिशील बनाए रखता है, तो उसकी ‘नो फर्स्ट यूज’ की नीति सिर्फ एक आदर्श नहीं, बल्कि दुश्मन के लिए डर और संतुलन का संदेश बनेगी।