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जीडीपी नहीं, खुशहाली हो विकास का मापदंड

विकास का वास्तविक अर्थ है मानव जीवन की गुणवत्ता में समग्र सुधार।

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नृपेन्द्र अभिषेक नृप, स्वतंत्र लेखक एवं शोधार्थी - आर्थिक प्रगति और विकास के मापदंडों पर विमर्श सदियों से चलता आ रहा है। हर युग में समाज ने अपने विकास का आकलन करने के लिए कुछ न कुछ संकेतकों का प्रयोग किया है। परंतु आधुनिक काल में जब से सकल घरेलू उत्पाद अर्थात् जीडीपी को किसी देश की प्रगति का प्रमुख पैमाना माना जाने लगा है, तब से आर्थिक विमर्श एक सीमित परिधि में सिमटकर रह गया है। यह सत्य है कि जीडीपी किसी राष्ट्र की उत्पादकता, आय और उपभोग के स्तर को दर्शाती है, किन्तु क्या यही किसी देश की प्रगति की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है? क्या सिर्फ बढ़ती आर्थिक संख्याएं किसी समाज की समग्र उन्नति का द्योतक हो सकती हैं? यही प्रश्न आज वैश्विक स्तर पर गूंज रहा है और भारत में भी इस पर मंथन आरंभ हो चुका है।


जीडीपी किसी देश के भीतर एक निश्चित अवधि में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के कुल मूल्य का लेखा-जोखा है। यह आर्थिक गतिविधियों का मात्रात्मक चित्र प्रस्तुत करता है। परंतु इसमें उस समाज की गुणात्मक प्रगति जैसे नागरिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक समानता, पर्यावरणीय संतुलन, और मानसिक संतोष का कोई प्रत्यक्ष माप नहीं होता। यही कारण है कि विकसित देशों में भी अब यह प्रश्न बार-बार उठाया जा रहा है कि क्या केवल जीडीपी वृद्धि को देखकर किसी राष्ट्र की असली तरक्की का अनुमान लगाया जा सकता है? यह आवश्यक है कि विकास के मानक को केवल आर्थिक समृद्धि तक सीमित न रखा जाए, बल्कि उसे मानवीय मूल्यों और सामाजिक कल्याण के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। भारत विशाल और विविधतापूर्ण देश है, जहां आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक संतुलन और पर्यावरणीय संरक्षण जैसे पहलू समान रूप से आवश्यक हैं। यदि किसी राज्य का जीडीपी बढ़ता है परंतु वहां शिक्षा का स्तर निम्न है, स्वास्थ्य सेवाएं जर्जर हैं, बेरोजगारी चरम पर है और महिलाएं असुरक्षित हैं, तो क्या उस राज्य को वास्तव में 'विकसित' कहा जा सकता है? उत्तर निस्संदेह 'नहीं' होगा।


विकास का वास्तविक अर्थ है मानव जीवन की गुणवत्ता में समग्र सुधार। इसका मतलब केवल आयवृद्धि से नहीं, बल्कि खुशहाली, अवसरों की समानता, पर्यावरण की सुरक्षा और सामाजिक सामंजस्य से है। यही कारण है कि अनेक अर्थशास्त्रियों ने जीडीपी के स्थान पर वैकल्पिक सूचकांक प्रस्तावित किए हैं। उदाहरणस्वरूप, संयुक्त राष्ट्र का मानव विकास सूचकांक (एचडीआइ) किसी देश की प्रगति को जीवन प्रत्याशा, शिक्षा और आय के संयुक्त मानदंडों से आंकता है। इसी प्रकार भूटान का सकल राष्ट्रीय खुशी सूचकांक (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) इस बात पर बल देता है कि नागरिकों की प्रसन्नता, मानसिक शांति और सामाजिक एकता भी प्रगति के उतने ही महत्त्वपूर्ण घटक हैं, जितने आर्थिक कारक। भारतीय अर्थनीति के लिए अब यह समय आ गया है कि वह जीडीपी के साथ-साथ अन्य मानवीय सूचकांकों पर भी समान ध्यान दे। क्योंकि विकास तब तक अधूरा है जब तक समाज का अंतिम व्यक्ति भी उसके फलों का अनुभव न कर ले।

जीडीपी की गणना में पर्यावरणीय क्षति का कोई लेखा-जोखा नहीं होता। यदि कोई उद्योग वन क्षेत्र को नष्ट कर देता है, नदियों को प्रदूषित करता है या हवा को जहरीला बनाता है, तो भी उसका उत्पादन बढऩे पर जीडीपी में वृद्धि दिखेगी। लेकिन क्या यह वास्तव में विकास है? यह एक प्रकार की भ्रामक समृद्धि है, जिसमें वर्तमान की वृद्धि भविष्य के अस्तित्व की कीमत पर खरीदी जाती है। इसलिए अब आवश्यक है कि जीडीपी के साथ ग्रीन जीडीपी की अवधारणा अपनाई जाए, जिसमें पर्यावरणीय संतुलन व प्राकृतिक संसाधनों की स्थिति का भी मूल्यांकन हो।


सामाजिक दृष्टि से भी जीडीपी वृद्धि के आंकड़े कई बार भ्रामक होते हैं। यदि कोई देश अधिक उपभोग कर रहा है, लेकिन उसकी शिक्षा व्यवस्था चरमराई हुई है, स्वास्थ्य सुविधाएं अनुपलब्ध हैं, महिलाओं की भागीदारी सीमित है और युवाओं में बेरोजगारी बढ़ रही है, तो ऐसी स्थिति में आर्थिक वृद्धि सामाजिक अशांति को जन्म देती है। जरूरी है कि प्रगति के आकलन में सामाजिक पूंजी जैसे पारिवारिक मूल्य, सामुदायिक सहयोग व नागरिक जिम्मेदारी को भी शामिल किया जाए। किसी राष्ट्र की प्रगति का आकलन अब केवल भौतिक संपन्नता से नहीं, बल्कि मानव-मूलक दृष्टिकोण से होना चाहिए।


यह भी सत्य है कि जीडीपी एक आवश्यक सूचक है, क्योंकि इसके बिना आर्थिक नियोजन संभव नहीं। सरकारें, नीतियां और बजट सभी का आधार यही आंकड़े होते हैं। परंतु यह आधार स्तंभ केवल एक पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है। जब तक इसके साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय संकेतकों को समान रूप से नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक विकास की परिभाषा अधूरी ही रहेगी। आज जब विश्व जलवायु परिवर्तन, बढ़ती असमानता और नैतिक पतन जैसी चुनौतियों से जूझ रहा है, तब हमें विकास का नया दर्शन गढऩे की आवश्यकता है। यह दर्शन मानव-केंद्रित अर्थव्यवस्था का हो, जिसमें व्यक्ति का कल्याण, समाज की स्थिरता और प्रकृति का संरक्षण एक-दूसरे के पूरक बनें।
भारत यदि आने वाले दशकों में 'विकसित राष्ट्र' का लक्ष्य प्राप्त करना चाहता है, तो उसे अपनी नीतियों में जीडीपी वृद्धि के साथ मानव विकास, सामाजिक समानता और पर्यावरणीय संतुलन को भी समान महत्त्व देना होगा। जीडीपी एक दर्पण अवश्य है, परंतु वह केवल बाहरी रूप दिखाता है। समय की मांग है कि हम जीडीपी की सीमाओं से आगे बढ़कर समावेशी, मानवीय और टिकाऊ प्रगति के मॉडल को अपनाएं, जहां अर्थव्यवस्था केवल संख्याओं की नहीं, बल्कि संवेदनाओं की कहानी कहे।