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‘वैश्विक गांव’ में लगातार उभरती विभाजक रेखाएं

राज कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक

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कहावत है कि उस समय ब्रिटिश सत्ता में सूरज कभी भी नहीं डूबता था, अब उसी ब्रिटेन के लाखों मूल निवासी पिछले दिनों ‘यूनाइट द किंगडम’ के नारों के साथ प्रवासियों के विरुद्ध रैली निकालते नजर आए तो संदेश साफ है कि विश्व को एक गांव के रूप में देखने-दिखाने के सपने बिखरने लगे हैं। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर वैश्विक गांव का नारा दिया गया था। भारत समेत तमाम देशों ने अर्थव्यवस्था ही नहीं, सोच और समझ की दृष्टि से भी अपने खिड़की-दरवाजे पूरी दुनिया के लिए खोल दिये। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों के दबाव में आर्थिक उदारीकरण को गति मिली, लेकिन सभी जानते हैं कि उसके मूल में अपने उत्पादों के लिए दुनिया भर के बाजार हासिल करने की अमेरिकी रणनीति काम कर रही थी। इसलिए भी, अमेरिका के वैचारिक विरोधियों ने अर्थव्यवस्था के उस उदारीकरण और वैश्वीकरण का विरोध किया। कुछ परंपरागत क्षेत्रों पर नकारात्मक असर के अलावा उससे लाभ भी मिला, लेकिन साढ़े तीन दशक बाद अब विश्व व्यवस्था फिर वापस अपने-अपने दायरे में लौटने को बेताब दिख रही है।

विडंबना यह कि इसकी शुरुआत भी अमेरिका से ही हुई। अमेरिका को फिर महान बनाने और अवैध प्रवासियों को बाहर निकालने के नारे के साथ, चार साल के अंतराल के बाद, दूसरी बार राष्ट्रपति बनने में सफल रहे डॉनल्ड ट्रंप की नीतियों का भले ही अब अमेरिका में भी विरोध होने लगा हो, लेकिन ‘स्थानीय बनाम प्रवासी’ का मोर्चा खोलने की राजनीति यूरोप समेत दूसरे देशों में भी रंग दिखाने लगी है। ये पश्चिमी देश हर तरह के उदारीकरण के लिए जाने जाते रहे हैं। इसीलिए प्रवासियों की पसंद की सूची में ऊपर रहे हैं। प्रवासियों को वहां बेहतर जीवन स्तर मिलता है तो वे भी उनके सर्वांगीण विकास में अपना योगदान देते हैं। अब अचानक इन देशों को प्रवासी अपने मूल निवासियों और अंतत: राष्ट्रीय हितों के लिए खतरा नजर आने लगे हैं। स्थानीयता और राष्ट्रवाद के नाम पर नागरिकों की भावनाएं भड़काने की राजनीति जांची-परखी है। इसलिए इसे आधार बना कर सत्ता-राजनीति की बिसात भी बिछायी जाने लगी है।

अगर अमेरिका सरीखे विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र और मजबूत अर्थव्यवस्था वाले उदार समाज में राष्ट्रवाद डॉनल्ड ट्रंप को दूसरी बार राष्ट्रपति बनवाने वाला ‘ट्रंप कार्ड’ बन सकता है तो फिर ब्रिटेन, फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया समेत अन्य देशों के राजनेता उसे क्यों नहीं आजमाना चाहेंगे? ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में चुनाव भी होने वाले हैं। बेशक फ्रांस से लेकर ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया तक जनता के सड़कों पर उतरने के मूल में वहां की सरकारों की, जन आकांक्षाओं पर खरा उतरने में नाकामी तथा महंगाई, बेरोजगारी एवं खराब कानून व्यवस्था के चलते बढ़ती जीवन की मुश्किलें ही हैं, लेकिन ट्रंप के ‘ट्रंप कार्ड’ के बाद तमाम समस्याओं को स्थानीय बनाम प्रवासी का मुद्दा बना कर पेश करने की राजनीति जोर पकड़ रही है।

पिछले दिनों लंदन में प्रवासी विरोधी रैली का हिंसक हो जाना बताता है कि ये भावनाएं लगातार गहरा रही हैं। बेशक आर्थिक विकास की दौड़ में किसी देश के पिछड़ जाने या आगे निकल जाने का कोई एक कारण नहीं होता- और यह अचानक भी नहीं होता, पर महंगाई- बेरोजगारी के साथ-साथ अपराधों में भी वृद्धि की तपिश झेल रहे अंग्रेजों को यह समझा पाना मुश्किल नहीं कि कभी दुनिया पर राज करने वाले ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था लगातार पिछड़ने के मूल में उस पर बढ़ता प्रवासियों का दबाव भी है।

आश्चर्य नहीं कि नोजली, लॉटन और केंट के कुछ क्षेत्रों में प्रवासी विरोधी गुट सक्रिय और मुखर हो रहे हैं। कुछ दशक पहले यह कल्पना भी मुश्किल थी कि ब्रिटेन के मूल निवासी अपने ही देश में खुद को असुरक्षित महसूस करने लगेंगे, लेकिन अब राजधानी लंदन में ही कुछ ‘नो-गो जोन’ बन गए हैं, जहां मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में गैर मुस्लिम जाना असुरक्षित समझते हैं। ब्रिटेन की ही बात करें तो लगातार बढ़ती मुस्लिम आबादी फिलहाल प्रवासी विरोध की बड़ी वजह है। अनुमान है कि 2035 तक ब्रिटेन की कुल आबादी में मुस्लिम आबादी 25 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी। किसी भी देश और समाज में जब आबादी का स्वरूप और संतुलन बदलता है, तो नई तरह की चुनौतियां पैदा होना स्वाभाविक है।

बेहतर जीवन की चाह में विदेश जाने वाले प्रवासी भी अपनी संस्कृति को आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजे रखना चाहते हैं। इस प्रक्रिया में वे संगठित भी होते हैं, लेकिन राष्ट्रवाद के जरिये स्थानीयता की राजनीति करने वाले उनकी सक्रियता और मुखरता को देश की मूल संस्कृति और निवासियों के लिए खतरे के रूप में पेश करते हैं। इस्लामी संस्कृति से लेकर गाजा पर ऐकजुटता के प्रदर्शन तक मुस्लिम संगठनों की सक्रियता और मुखरता अंग्रेजी समाज में भविष्य के खतरे के रूप में भी रेखांकित की जा रही है।

ऐसा लग सकता है कि ब्रिटेन में प्रवासी विरोध के निशाने पर मुस्लिम ही हैं, पर वास्तव में अवैध प्रवासी हर देश में समस्या बनते जा रहे हैं। अमेरिका की तरह अन्य पश्चिमी देशों में भी अवैध प्रवासियों से सख्ती से निपटने के लिए जनता का दबाव बढ़ रहा है। एक अनुमान के मुताबिक इसी साल लगभग 28 हजार अवैध प्रवासी छोटी नावों से इंगलिश चैनल पार कर ब्रिटेन में प्रवेश कर चुके हैं। खुद को अवैध प्रवासियों के लिए धर्मशाला नहीं बनने देना किसी भी देश के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता। बेशक जिन देशों से ये अवैध प्रवासी आते हैं, वे भी उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई का तार्किक विरोध नहीं कर सकते।