हमारे राष्ट्रीय इतिहास में शतक, दो शतक से काम करती रही ऐसी कुछ संस्थाएं निश्चित होंगी। कोलकाता, पुणे, वाराणसी, चेन्नई या राजधानी दिल्ली में ऐसे संस्थान मिलना स्वाभाविक है। मगर संस्थाओं के अतिरिक्त जिन्हें हम समाज संगठन कहते हैं ऐसे दीर्घायुषी संगठन जो एक-दो शताब्दी चलते ही रहे हो, हमें शायद ही मिलते हैं। इतनी लंबी अवधि के लिए संगठन का कार्य करते रहना कोई सामान्य बात नहीं हैं। यही कारण है कि भारत के सामाजिक इतिहास में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी यह एक मील के पत्थर जैसी विशेष उल्लेखनीय घटना बन गई है।
संघ ने समस्त हिंदू समाज को संगठित करने का, जो एक व्रत लिया वह एक कठिनतम व्रत है और यह चुनौतीभरा होने पर भी संघ का काम अविचल चल ही रहा है। इस यात्रा में जिस असीम ऊर्जा की प्रमुख भूमिका है, वह है संघ की कार्यपद्धति और उसके पीछे की विशिष्ट दृष्टि। संघ का उद्देश्य एक राष्ट्रीय चरित्र निर्माण का रहा है। इसमें स्वाभाविक रूप में अनुशासन की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है।
संगठित हिन्दू समाज के लिए आवश्यक था कि देशभक्ति के संस्कार को, उसी में अंतर्निहित ऐक्यात्मता के भाव को पूरा समाज अंगीकार करे और अपने व्यक्तिगत और सामाजिक व्यवहार में उसे परिलक्षित भी करे। इसी अनुशासन के आग्रह के चलते स्थापना के बाद बहुत समय तक संघ के सांगठनिक ढांचे पर कुछ मात्रा में सेना या मिलिट्री की छाया कम-अधिक मात्रा में रहती आई। संघ का पथ-संचलन हो या संघ का घोष हो, उस पर यह छाया अधिक दृष्टिगोचर थी। मगर जो धुन बजाए जाते रहे वह पूर्णतया भारतीय संगीत की परंपरा के अनुसार थे। संघ का घोष पथक स्वदेशी सुरों के आलाप से अधिक श्रवणीय होकर श्रोताओं के मन को हमेशा जीतता रहा है। विदेशी को स्वदेशानुकूल और स्वदेशी को युगानुकूल बनाने के संकल्प के सहारे संघ ने अपनी शताब्दी-यात्रा सफलतापूर्वक संपन्न की है। समय के अनुसार बदलाव आए पर कुछ चीजें न बदलीं और सामान्यत: न ही कभी बदलेंगी।
संघ की सांगठनिक संरचना में सरसंघचालक और सर कार्यवाह यह दो सर्वोच्च पद हैं और यह एक शाश्वत रचना है। संघ में प्रचार विभाग अभी-अभी बना है और जब बना तो माध्यम जगत का एक भी हिस्सा उन्होंने अस्पर्शित नहीं छोड़ा। संघ यानी शाखा और शाखा यानी कार्यक्रम, यह संघ का एक चिरंजीवी सूत्र रहा है। मगर विदेश में, जहां संघ प्रेरित भारतीय, हिंदू स्वयंसेवक संघ के रूप में एकत्रित होते हैं। वहां, जब बर्फीली सुबह में प्रभात शाखा लगाना कठिन हो जाता है तब कई जगह वर्चुअल शाखाएं लगती हैं।
संघ के प्रात: स्मरण स्तोत्र में कुछ समय पहले परिवर्तन हुआ था, मगर संघ की प्रार्थना नहीं बदली। संघ की शाखाओं में शारीरिक कार्यक्रम, खेल और योगासन इत्यादि चलते हैं और इसी के चलते शाखाओं में महिलाएं सहभागी नहीं हो पाती। मगर संघ के व्यापक कार्य में अब कई सारी महिलाएं समर्पण भाव से जुड़ गई हैं। संघ का गणवेश बदला है, मगर इस गणवेश का उद्देश्य जो समूह भाव के संस्कारों के विकास का है, वह उद्देश्य न बदला है और न ही बदल सकता है। सभी की धारणा है कि अपनी भारतीय संस्कृति जैसा ही अपना दृष्टिकोण ‘नित्य नूतन, चीर पुरातन’ में अपने अटूट विश्वास का होना आवश्यक है। संघ के बाह्य स्वरूप में चाहे आवश्यकतानुसार परिवर्तन हुआ भी हो, संघ का अंतरंग बदला नहीं है, क्योंकि उसकी मूल्यरचना शाश्वत और कालजयी है। एक संस्कृत श्लोक में कहा गया है कि- अमन्त्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम्। अयोग्य: पुरुष: नास्ति, योजकस्तत्र दुर्लभ:।।
अर्थात ऐसा कोई भी अक्षर (शब्द) नहीं है जिसमें मंत्र का सामथ्र्य न हो, ऐसा कोई भी पौधे का जड़ नहीं है, जिसमें औषधि तत्त्व न हो और उसी तरह इस जगत में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं, जो अयोग्य हो। आवश्यक है एक योजक जो ऐसे सभी मनुष्यों के गुणों को समझ सके। इसी सूत्र पर संघ की श्रद्धा है। जब तक यह श्रद्धा बरकरार है, संघ सज्जन शक्ति को संगठित करने के उद्देश्य से चलता ही रहेगा।
Published on:
03 Oct 2025 04:24 pm
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