संसार में जो विषमता और तनाव बना हुआ है, वह भूख मात्र के कारण नहीं है बल्कि अधिक से अधिक भोग के कारण है। पंच महाभूतों से उत्पन्न सृष्टि में हम प्रकृति का दोहन कर जो कुछ प्राप्त कर रहे हैं उसके लिए हम प्रकृति को प्रतिदान के रूप में कुछ नहीं देते और चतुर देश उन साधनों का अपने लिए अधिकाधिक उपयोग कर रहे हैं। जो देश उन्नत माने जाते हैं वे इसी तरह साधनों का संचय कर उन्नत बने हुए हैं। संसार की अर्थव्यवस्था में वे अपने हित के लिए उलट-फेर करते रहते हैं। वे नए-नए नारे ईजाद कर हमें भुलावे में डालते रहते हैं। विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन और न जाने कितने संगठन विश्व अर्थव्यवस्था की नकेल थामे हुए हैं और उन्नत देशों के हितों की रक्षा में दत्तचित्त रहते हैं। आर्थिक हितों की रक्षा के लिए ये राष्ट्र शस्त्रास्त्रों का संचय करते हैं और सामरिक संगठन बनाते हैं। प्रकृति के अमर्यादित दोहन को वे अपना विजय अभियान समझते हैं। पूंजीवाद की प्रबल शक्ति का माध्यम उद्योग और तकनीकी ज्ञान बना हुआ है जो पूंजी और सम्पदा के केन्द्रीयकरण का कारण बनते हैं। उद्योग और तकनीक के कारण जीवन की गति अत्यधिक बढ़ गई है और बढ़ती ही जा रही है। इतनी ही तीव्र गति से प्राकृतिक सम्पदा का दोहन भी हो रहा है। तेल, कोयला, लोहा, अलौह धातु और औद्योगिक उत्पाद का प्रभूत मात्रा में उपभोग भी बढ़ता जा रहा है। उपभोग के अतिरेक को जीवन का मापदण्ड मान लिया गया है। जो देश जितना अधिक उपभोग करता है उसे ही उन्नत मान लिया जाता है। साफ ही है कि यह अर्थव्यवस्था और जीवनशैली कभी मानव समाज के लिए हितकर नहीं हो सकती। आज जीवन में जो वेग है वह भी तनाव पैदा करने वाला है। जीवन में वेग बढ़ाने वालों को यह नहीं मालूम कि उनका गन्तव्य क्या है? यदि यह मालूम हो जाए कि हमें क्या प्राप्त करना है तो एक दिशा मिल जाएगी। दिशा जब सामने ही नहीं हो तो जितना वेग बढ़ेगा उतना ही क्लेश बढ़ता जाएगा। अमरीकी वैज्ञानिकों का तो मानना है कि वे एक दिन ऐसा देखना चाहते हैं जब मनुष्य को अपने योग-क्षेम के लिए कुछ करना ही नहीं पड़े।
हम भोगते नहीं, भुगत जाते हैं
प्रकृति से अनुकूलता से अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि हम आधुनिक उपकरणों या साधनों को तिलांजलि दे दें। परन्तु अभिप्राय यही है कि हमें कहीं न कहीं भौतिक पदार्थों के व्यापार अर्थात कार्यकलाप पर विराम लगाना होगा। पदार्थों का भोग करते हुए हमें आत्मा को केन्द्र में रखना होगा। हमारा आग्रह पदार्थों पर न होकर उन्हें परिवर्तन प्रक्रिया का एक अंग मानकर भोगना होगा। हम यह न मानें कि हम केवल भोक्ता ही हैं, बल्कि हम स्वयं भी भोग्य हैं। वेद कहता है- 'सर्वमिदमन्नं सर्व मिदमन्नाद' हम अन्न भी हैं और अन्नाद अर्थात खाने वाले भी हैं। भर्तृहरि कहते हैं 'भोगा न भुक्ता: वयमेव भुक्ता' अर्थात हम भोगते नहीं भुगत जाते हैं। यह साधारण जीवन दृष्टि नहीं है। मानव समाज में आज जो व्याधियां प्रस्तुत है उसका कारण सम्यक दृष्टि का अभाव ही है। समग्र दृष्टि के बिना हमारे सामने सुख-शांति का कोई उपाय नहीं है।
(कुलिश जी के आलेखों पर आधारित पुस्तक 'दृष्टिकोण' से)
डॉलर का साम्राज्य
अमरीका, बीसवीं सदी की शुरुआत से ही समृद्धि की ओर बढ़ता रहा है। दूसरे महायुद्ध के बाद ब्रिटिश साम्राज्य का सितारा डूबने के साथ ही अमरीका की यह समृद्धि दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ गई। उसने यूरोप के अन्य अग्रगामी देशों के साथ-साथ जापान का बाजार अपने हाथ में कर लिया। स्थिति ऐसी हो गई कि डॉलर का विश्व में एकछत्र प्रभुत्व स्थापित हो गया। इसके साथ ही अमरीका की अपनी समस्याएं भी बढऩे लगी। बड़े शहरों में आबादी के जमाव का बेहद बढ़ जाना, विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी का विस्तार का असर, विदेशों में अमरीकी दायित्व एवं हस्तक्षेप बढऩा और रूस-चीन की चुनौतियां ऐसी ही समस्याएं हैं।
('अमरीका एक विहंगम दृष्टि' पुस्तक से )
Updated on:
19 Sept 2025 08:44 pm
Published on:
19 Sept 2025 08:39 pm
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